'अस्मिता' में अस्मिता की खोज
वर्सोवा विलेज से आराम नगर की दूरी मुश्किल से एक या डेढ़ किलोमीटर होगी। डिपेंड करता है कि आप विलेज के कितना अंदर और कितना बाहर रहते हैं। फिर भी मान लीजिए कि बारह-तेरह सौ मीटर की दूरी होगी। D Mart से ही आराम नगर शुरू हो जाता है। D मार्ट से थोड़ा आगे बढ़ने पर बॉलीवुड के सबसे बड़े कास्टिंग डायरेक्टर मुकेश छावड़ा का बड़ा-सा ऑफिस है। उन्होंने दो-दो ऑफिस बना रखा है। कास्टिंग के लिए अलग और राइटिंग टीम के लिए अलग। उनके ऑफिस से मात्र सौ मीटर की दूरी पर अस्मिता थिएटर का ऑफिस है। विद्यार्थी हमेशा उसमें कुछ न कुछ अभ्यास करते रहते हैं। अंदर रिहर्सल चलता है, बाहर ऑफिस में बैठकर दो-तीन लोग कुछ न कुछ पढ़ते रहते हैं। उस ऑफिस में मंडी हाउस के श्रीराम थिएटर में हुए कई कार्यक्रम के पोस्टर लगे हुए हैं। स्वदेश दीपक के 'कोर्ट मार्शल' और असगर वजाहत के 'जिन लाहौर नहीं देख्या' के पोस्टर ज्यादा है। अजय देवगन की 'भोला' फिल्म में खलनायक की भूमिका निभाने वाले दीपक डोबरियाल की दो-तीन पोस्टर है। मैंने किसी से पूछा नहीं लेकिन अनुमान लगाया कि दीपक डोबरियाल अस्मिता थिएटर से जुड़े रहे होंगे। लगभग सभी नाटकों का निर्देशन अस्मिता थिएटर के संस्थापक अरविंद गौड़ ने किया है और उसमें संगीत दिया है संगीता गौड़ ने। ऑफिस से ठीक पहले तिग्मांशु धूलिया का ऑफिस है। उनके ऑफिस के बाहर BMW की ब्लू कलर की कार खड़ी रहती है। मुझे एक स्ट्रगलर ने बताया कि ऑफिस के बाहर वह कार है तो समझो कि तिग्मांशु धूलिया ऑफिस में ही है। अंदर में उनकी उपस्थिति का पता बाहर खड़ी उनकी कार देती है। मैं दो बार उनके ऑफिस जा चुका हूँ पर तिग्मांशु धूलिया से मिलना नहीं हो पाया। बहुत अजीब तरह से खुद को कैद करके रखते हैं मुम्बईया लोग। ठीक ही है। क्योंकि हर किसी से मिलने लगे तो मिलने वालों की लाइन लग जाएगी। फिर भी उन्हें कोई न कोई ऐसा समय जरूर निर्धारित करना चाहिए जिसमें एक-दो मिनट के लिए वे लोगों से मिल सके। जैसे सोनू सूद शाम को सात बजे अपने ऑफिस के बाहर लोगों से मिलते हैं। मुझे लगता है कि तिग्मांशु धूलिया समझ चुके हैं कि कोई काम का आदमी नहीं है। मिलने में समय की बर्बादी ही होगी। क्योंकि आराम नगर में प्रेत की तरह राइटर घूमते रहते हैं। राइटर से ज्यादा तो स्ट्रगलर एक्टर घूमते रहते हैं। उन स्ट्रगलरों को देखकर माथा पीटने का मन करता है। न हाइट है, न लुक है, न बॉडी है लेकिन हर किसी को एक्टर बनना है। सब इस ताक में भटक रहे हैं कि किसी भी प्रोजेक्ट में उसे कोई भी छोटा-मोटा काम मिल जाए। इन्हें देखकर लगता है कि कोई भी आदमी एक्टर बन सकता है। बस उसे एक्टिंग आनी चाहिए। तिग्मांशु धूलिया काफी पढ़े-लिखे निर्माता-निर्देश है। उनका ऑब्जर्वेशन ठीक होगा। लेकिन हर किसी को एक जैसा समझ लेना थोड़ा-सा खटकता है।
मैं हफ्ते में एक बार अस्मिता थिएटर जरूर जाता था और दो-तीन घंटा बैठकर वहाँ के विद्यार्थियों से बात करता था। आते-जाते तिग्मांशु धूलिया के ऑफिस में जरूर झाँक लेता था। उनसे मिलने की इच्छा थी। मिलने की इच्छा तो सलीम खान साहब और जावेद अख्तर जी से भी थी। उनकी जोड़ी ने बॉलीवुड को बहुत कुछ दिया है। उनके दिए हुए से ही हमारा दीया भी टिमटिमा रहा है। वे हमारे दौर के सबसे वरिष्ठ और सुलझे हुए लेखक हैं। लेखक होने के नाते मेरी हार्दिक अभिलाषा थी कि मैं उन दोनों से मिलूँ। यही इच्छा लेकर मैं Galaxy Appartment भी चला गया था। उनके घर के बाहर दस-पंद्रह पुलिस पहरा दे रही थी। कोई चांस ही नहीं था। वैसे भी बॉलीवुड में कोई भी कलाकार अपने घर पर किसी से नहीं मिलता है। चलते-फिरते या ऑफिस में मिल जाए यही गनीमत है। इसलिए अभी तक उन लेखकों से मुलाकात नहीं हो पाई जिनकी वजह से बॉलीवुड ने हिंदी सिनेमा को बहुत कुछ दिया। मुझे तो लगता है कि 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' वाले संवाद "बेटा तुमसे न हो पाएगा" को तिग्मांशु धूलिया ने वास्तविक जीवन में सत्य मान लिया है। इसलिए आजकल खुद लिख रहे हैं। अपनी कहानी पर काम कर रहे हैं। दूसरों की कहानी नहीं सुनते हैं। निर्माता निर्देशक के पास इतना समय तो जरूर होना चाहिए कि वह किसी से Logline ही सुन ले। कोई भी व्यक्ति एक सेकंड भी देने को तैयार नहीं है। सबकी अपनी पर्सनल इच्छा है कि वह किससेमिलेगा किससे नहीं। लेकिन जिसकी रोजी रोटी पब्लिक के सपोर्ट और उसके द्वारा भुगतान किए गए पैसों से चलती हो उसे पब्लिक के प्रति इतना निष्ठुर नहीं होना चाहिए। बॉलीवुड की बाहर की दुनिया के लोग इन्हें अपना भगवान समझते हैं, लेकिन इन लोगों के लिए पब्लिक झांट बराबर भी नहीं है।
तिग्मांशु धूलिया की बात बार-बार आएगी। क्योंकि उनका ऑफिस अस्मिता के रास्ते में है। आते-जाते नजर पड़नी ही पड़नी है। पहली बार जब अस्मिता थिएटर के ऑफिस गया था तब मुझे तिग्मांशु धूलिया के ऑफिस के बारे में पता नहीं था। वर्सोवा बीच पर बैठा था तब एक लड़के ने कहा कि आप तिग्मांशु धूलिया से मिलो। उसका ऑफिस अस्मिता थिएटर के पास ही है। फिर मुझे पता चला। अगले ही दिन मैं उसके ऑफिस चला गया था। उस दिन BMW तो थी परंतु उसका असिस्टेंट नहीं था। कैटरीन वाले दो लड़के थे जो चाय बना रहे थे। उसने मुझे उसके असिस्टेंट का नम्बर दिया। मैंने तुरंत उसे फोन किया। वह उस दिन नहीं आने वाला था। कल आकर मिलने को कहा। मैं गया था। बातचीत हुई। कहाँ से आए हो? क्यों आए हो? तिग्मांशु धूलिया सर से क्या काम है? किसने तुम्हें भेजा है? उसने सब पूछा और मैंने सभी प्रश्नों का परीक्षार्थी की तरह उत्तर दिया। अंत में अपनी ईमेल आईडी देते हुए उसने कहा कि जो भी सर को देना चाहते हो इस मेल पर भेज दो। सर पहले पढ़ेंगे फिर तुम्हें मिलने के लिए बुला लिया जाएगा। मैं चुपचाप वहाँ से अस्मिता थिएटर में जाकर बैठ गया। जितने सवाल उसने मुझसे किए थे, उससे कई ज्यादा सवाल मेरे मन में उठने लगे। मंदिर में आप बिना पुजारी के रोकटोक के भगवान का दर्शन कर सकते हैं लेकिन किसी ऑफिस में जाकर कलाकार से नहीं मिल सकते। पता नहीं वे कौन लोग हैं जो इनलोगों को अपने सिर पर बिठा रखा है? ये लोग खुद को क्या समझते हैं? ये वास्तव में कलाकार ही हैं या कला के व्यापारी?
मैं अस्मिता थिएटर में बैठा था। एक लड़का 'गोदान' उपन्यास पढ़ रहा था। मैंने उससे पूछा, "समझ में आ रहा है?" उसने झट से जवाब दिया, "समझने के लिए कौन पढ़ रहा है। मैं तो बस उच्चारण सही करने के लिए पढ़ रहा हूँ। वैसे आप हैं कौन?" मैंने उसे अपना परिचय दिया। फट से खड़ा होकर नमस्कार किया और चाय पानी के लिए पूछने लगा। बगल में बैठा लड़का घुन्नाकर उसे देख रहा था। मैंने उस लड़के को बैठने के लिए कहा। उसने मुझसे कहा, "सर कोई टिप्स बताइए जिससे मेरा उच्चारण सही हो जाए। बोलता हूँ तो बिहारी टोन का पता चल जाता है। इससे काम मिलने में दिक्कत हो रही है। किसी ने मुझे किताब पढ़ने को कहा है इसलिए मैं इस किताब को पढ़ रहा हूँ। कोई उपाय बताइए सर।" मैं उसे क्या ही बताता। 2007 से दिल्ली में हूँ। 2003-05 भी दिल्ली में ही रहा। इन सत्रह सालों में मैं बिहारी टोन नहीं छोड़ पाया तो उसको क्या ही घुट्टी पिला सकता था। लेकिन मुझे जवाब तो देना ही था। वह भी बिना उसके मनोबल को गिराए। मैंने कहा, "भाषा की कोई समस्या नहीं है। समस्या होती तो 'पंचायत' वेब्सिरिज इतनी लोकप्रिय नहीं होती। उसकी लोकप्रियता का कारण ही उसका गँवईपन है। हर कलाकार देसी टोन में बात करता है। 'मिर्जापुर' में विजय वर्मा इसी टोन में बात करते हैं जो कभी बिहार नहीं गया। आजकल लगभग सभी फिल्मों में भी कोई न कोई ऐसा कलाकार जरूर होता है जो देसी स्टाइल में बात करता है। इसलिए भाषा की कोई समस्या नहीं है। समस्या है नियत की। लोगों को काम देना होगा तो यह नहीं देखेगा कि तुम्हारी भाषा क्या है, तुम्हारा टोन क्या है। ऐसा होता तो डबिंग का काम नही होता। इसलिए भाषा और टोन के कारण खुद को तकलीफ मत दो। लेकिन तुम्हें अपने टोन पर जरूर काम करना चाहिए। इसका ठीक होना जरूरी है। और यह मौन पाठ से ठीक नहीं होगा। बोल-बोलकर पढ़ो। जोर-जोर से पढ़ो। कोशिश करो कि उपन्यास, कहानी से ज्यादा नाटक पढ़ो। क्योंकि उसकी रचना रंगमंचीयता को ध्यान में रखकर की जाती है। उसके संवादों में नाटकीयता होती है। उसे पढ़कर न केवल उच्चारण दुरुस्त होगा बल्कि कलात्मक कौशल का भी विकास होगा।" पता नहीं मैंने कितना सही कहा और कितना गलत। आप शायद बेहतर बताते।
मेरे कहने के बाद वह लड़का बोल-बोलकर पढ़ने लगा। इतने में बाहर से चार-पांच लड़के एक साथ ऑफिस में घुसे। जूता चप्पल निकाला और रिहर्सल कक्ष में चला गया। उन्हीं में से एक लड़के के हाथ में मोहन राकेश के कालजयी नाटक 'आधे-अधूरे' था। मैंने नाटक देखकर उससे पूछा, "इसे पढ़ लिया?" उस लड़के ने कहा कि वह रोज एक बार उस नाटक का पाठ कर रहा है। उसकी बातों से पता चला कि वह प्ले की तैयारी कर रहा है। बहुत संभव है कि अस्मिता थिएटर वाले उस नाटक की प्रस्तुति करे। मैंने उससे फिर पूछा, "सावित्री के बारे में तुम्हारा क्या ऑब्जर्वेशन है?" सुनकर उस लड़के ने मुझे आश्चर्य से देखा। बोला, "अभी मैं उस नजरिए से इसको नहीं पढ़ रहा हूँ।" इतना कहकर वह भी रिहर्सल कक्ष में चला गया। वहाँ दो लोग और बैठे थे। एक हिंदी से एमए कर चुके थे। दूसरे के बारे में मुझे जानकारी नहीं है। एमए किया हुआ आदमी बोला, "बताइए, यह नाटक आज भी बहुत प्रासंगिक है।" मैंने उसी से पूछा सावित्री के बारे में पूछ लिया। कुछ सोचते हुए उसने कहा, "वह औरत ऑर्गेज्म की भूखी है। वह हर मर्द से संबंध बनाना चाहती है।" मेरा माथा ठनका। अभी तक ऐसी टिप्पणी किसी भी आलोचक के मुख से नहीं सुनी थी। बातचीत आगे बढ़ गई। मैंने कहा कि आप सावित्री की अस्मिता पर सवाल खड़ा कर रहे हैं। उसने हँसते हुए कहा, "वह खुद खड़े मर्द की तलाश कर रही है। इसमें मैं अपनी तरफ से कुछ थोड़े न कह रहा हूँ। मोहन राकेश खुद लिख रहे हैं कि वह हर पुरुष के करीब आना चाहती है।" 'खड़े आदमी' की व्याख्या उसने जिस भाव भंगिमा से की उससे पता चला कि वह सचमें रंगमंच का आदमी है। मैंने कहा, "एक महिला, जो अपने टूटे हुए घर को फिर से जोड़ने की, चलाने की कोशिश कर रही है और आप कह रहे हैं कि उसे खड़े मर्द की तलाश है।" वह हँसने लगा। बोला, "नहीं महाराज! घर को जोड़ नहीं रही थी बल्कि जो थोड़ा-बहुत सही बचा था उसमें भी आग लगाने की कोशिश कर रही थी। घर जोड़ रही होती तो हारे हुए पति का सहारा बनती, उसकी रीढ़ की हड्डी बनती। उसे संभालती। यह नहीं कि उसे और परेशान करती। मानसिक प्रताड़ना देती। यदि वह तीन बच्चों की माँ नहीं होती तो पति को छोड़कर बहुत पहले भाग गई होती। वैसे भी वह उस उम्र में भी भागने की योजना बना चुकी थी। सावित्री यह साबित करती है कि औरत सिर्फ सफल पुरुष के साथ रहना चाहती है।" मेरा तो सिर घूम गया। परिवेश का असर समीक्षा पर कैसे पड़ता है मैं समझ रहा था। उसने आगे कहना शुरू किया, "बॉलीवुड में यह घटना बहुत आम है। यहाँ हर औरत कामयाब मर्द के पीछे भागती है। पता नहीं किस भोंसड़ीवाले ने कहा है कि हर सफल पुरुष के पीछे महिला का हाथ होता है। मैं माँ-बहन की बात नहीं कर रहा हूँ। गर्लफ्रैंड और बीवी की बात कर रहा हूँ। ये औरतें माँ और बहन की बराबरी कर ही नहीं सकती। इसलिए कहना यह चाहिए कि हर सफल पुरुष के हाथ में महिला का हाथ होता है। इसका कैरियर खत्म हुआ, इसकी बीवी ने डायवोर्स ले लिया, उसका कैरियर खत्म हुआ, उसकी बीवी ने डायवोर्स ले लिया। सिर्फ डायवोर्स ही नहीं लिया, मुआवजा भी वसूला। हारे हुए इंसान को ये औरतें और मारती हैं। मैं ऐसे पचासों एक्टर का नाम चुटकी में बता सकता हूँ जो इस मानसिक पीड़ा से गुजर रहे हैं। इसीलिए मैं सावित्री के बारे में ऐसा कह रहा हूँ।" इससे साफ पता चलता है कि अनुभव और परिवेश का प्रभाव समीक्षा पर पड़ता है।
मेरे लिए 'आधे-अधूरे' की यह अलग व्याख्या थी। मुझे उसकी बात सुनकर अच्छा लग रहा था। मैंने कहा, "महेन्द्रनाथ हारा हुआ इंसान है और सावित्री भटकी हुई स्त्री।" उसने तपाक से कहा, "भटकी हुई नहीं थी। गिरी हुई औरत थी। बताइए जिस उम्र में पोते नातिन खिलाने चाहिए उस उम्र में वह पति को छोड़कर दूसरे पुरुष के साथ भगने की योजना बना रही है। उस उम्र में तो वैसे भी सेक्स की फीलिंग कम हो जाती है। पुरुषों की तो कम हो ही जाती है। ऊपर ऊपर से विजनेस में घाटे का तनाव है सो अलग। महेन्द्रनाथ उम्र के उसी पड़ाव पर है और जो थोड़ी बहुत शारीरिक ऊर्जा बची थी वह व्यापार के नष्ट होते ही नष्ट हो गई। उसने बिस्तर पकड़ लिया। उसका खड़ा होना मुश्किल था, ऊपर से सावित्री उसकी रही-सही कसर उतारने लगी। महेन्द्रनाथ तीनों तरफ से घिरा हुआ है। उसकी हिम्मत बढाने की बजाय सावित्री हिम्मत वाला मर्द तलाश रही है। इससे पता चलता है कि औरतों में सेक्स की भूख बुढ़ापे तक रहती है। उसी का असर उसकी बड़ी बेटी पर पड़ती है। बताइए, जिस मर्द के साथ माँ भागने वाली होती है, उसके साथ बेटी भाग जाती है। यह तो मेरठ वाला काण्ड हो गया। जिस लड़का से बेटी का विवाह होने वाला होता है उसी के साथ लड़की की माँ भाग जाती है। दोनों घटना एक ही जैसी है। यहाँ बेटी भागती है तो वहाँ सास। बस इतना ही फर्क है।" मेरठ का नाम सुनते ही ड्रमकाण्ड मेरे दिमाग में दौड़ने लगा। कितना भयावह है यह काण्ड! पत्नी ने प्रेमी संग मिलकर पति के टुकड़े-टुकड़े कर ड्रम में रखकर उसमें सीमेंट भर दी थी। तहलका मचा दी थी उस घटना ने। रील्स और मीम्स की बाढ़-सी आ गई थी। लोग अपने-अपने घरों से बड़ा वाला ड्रम फेकने लगे थे। दुकानों पर ड्रम्स की बिक्री बंद हो गई थी। उसी मेरठ की यह दूसरी चर्चित घटना थी जिसका जिक्र उसने किया।
सावित्री को लेकर हिंदी आलोचना में भिन्न-भिन्न धारणाएँ हैं। एमए के दौरान जब मैम 'आधे-अधूरे' पढ़ाती थी तो सावित्री क्रांतिकारी महिला लगती थी, जिसका पति निकम्मा है, बेटा-बेटी नालायक है और वह सबका उदर भरने के लिए इधर-उधर भाग रही थी। बेटे-बेटी का भविष्य उज्ज्वल हो, इसके लिए लिंक बना रही थी। तब सावित्री साहसी लगती थी और महेन्द्रनाथ कामचोर, नकारा। लेकिन लोक में यह नाटक अलग रूप में ही मौजूद है। मैंने उसकी किसी भी बात का खंडन नहीं किया। मैं बस सुननाचाहता था। सुनता रहा। चार-पाँच साल पहले अनुशक्ति सिंह के बयान ने सुप्त आलोचना को चिकुटी काटी थी। उसने कहा था कि "पुरुष जब अपने सुख के लिए दूसरी औरत के पास जा सकता है तो औरत भी अपने ऑर्गेज्म के लिए दूसरे पुरुष से संबंध क्यों नहीं बना सकती?" कुछ ऐसा ही प्रश्न उठाया था उन्होंने। जब उस व्यक्ति ने अधेड़ उम्र की सावित्री को ऑर्गेज्म की भूखी बताया तो मुझे सहसा अनुशक्ति सिंह याद आई। उसका बयान याद आया। आप लोग उसकी बातों का जवाब दीजिए। मैं तो जवाब देने से रहा। मेरे वश की बात नहीं है जवाब देना। आप ही संभालिए इस टॉपिक को।
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