बॉलीवुड: क्रिएटिव लोगों का कब्रिस्तान

मुझे मुंबई आए हुआ आज एक महीना एक दिन पूर्ण हुआ। दस दिन की यात्रा सोचकर आया था लेकिन तीस दिन कैसे बीता मुझे सब पता चला। क्योंकि यह न मेरी केवल फिल्मी यात्रा है बल्कि मैंने इसे साहित्यिक यात्रा भी बनाया है। यही वजह है कि मैं हर उस जगह घूमने के लिए निकल गया जहाँ जाने का मेरा मन हुआ। एक रात 9 बजे Madh Island पहुँच गया था। ऑटो वाले को 100 रुपया दिया और कहा कि भाई इसका एक चक्कर लगा दो। पंकज त्रिपाठी के बैंग्लो भी पहुँच गया था। मतलब जबर्दस्ती कहीं भी जा रहा हूँ। अच्छी बात यह है कि सब अच्छे से पेश आ रहे हैं। बात कर लेते हैं। पढ़ा-लिखा होने का थोड़ा-बहुत लाभ मुझे मिल रहा है। बहुत जल्दी ही यात्रा वृत्तांत और संस्मरण के तौर पर पूरी कथा आपको पढ़ने को मिलेगी। मैं इसके लिए आपको पूरा भरोसा दिया सकता हूँ। प्रतीक्षा जरूर कीजिएगा।

मैंने अपनी इस यात्रा में कई अध्याय जोड़े हैं। उन्हीं अध्यायों में से एक अध्याय यह भी है। अभी मेरी शॉर्ट फिल्म पर यहाँ के स्ट्रगलर फिल्म बना रहे हैं तो एक अध्याय मेरी वह फिल्म भी बनने वाली है। उस फिल्म में जो लड़का काम कर रहा है वह मनोज वाजपेयी के साथ स्क्रीन शेयर कर चुका है। अगले हफ्ते से उस शॉर्ट फिल्म पर काम शुरू हो जाएगा। जिसके साथ रह रहा हूँ वह भी स्ट्रगलर एक्टर है और अच्छी बात यह है कि उसका घर मेरे घर से मात्र दस किलोमीटर की दूरी पर ही है। जब मैंने उसको शॉर्ट फिल्म की कहानी सुनाई तो वह भी उसे करने के लिए तुरंत तैयार हो गया। लेकिन मैं बहुत पहले ही वह कहानी किसी और को दे चुका हूँ इसलिए मुझे मना करना पड़ा। अभी उसकी फीचर फिल्म बनकर तैयार है। जैसे ही OTT पर आएगी सूचित कर दूँगा।

इस हिस्से में मैं जिस अध्याय पर बात करने जा रहा हूँ वह बहुत हैरान करने वाला है। थोड़ी देर के लिए पूजपाठ से आपका विश्वास भंग हो सकता है। जो पूजपाठ नहीं करते हैं उनके मन में इसके प्रति और घृणा बढ़ेगी और उनका आत्मविश्वास बढ़ेगा। मैं उस विषय पर बात शुरू करूँ उससे पहले मेरा एक छोटा-सा सवाल है। उसका उत्तर आप कमेंट बॉक्स में जरूर देना। मैं वादा करता हूँ कि आपके द्वारा की गई टिप्पणी को इस अध्याय के साथ मैं संस्मरण में जरूर कोट करूँगा। सवाल है- "हम पूजापाठ क्यों करते हैं?" मैं जो इसका उत्तर ढूंढ पाया हूँ वह है, "सिर्फ शांति के लिए।" क्योंकि इसका सत्य, अहिंसा, प्रेम, भरोसा, पाप और पुण्य से दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं है। 

आध्यात्म सत्य से चल ही नहीं सकता। मुझे एक आध्यात्मिक गुरु का नाम बताइए जो यह कहे कि पूजापाठ करने से कुछ नहीं होता है। सब ढोंग है। ईश्वर की कल्पना ही अपने आप में मुझे बहुत बड़ा फ्रॉड लगता है। आस्था को मैं शतप्रतिशत स्वीकार करता हूँ। क्योंकि उसका संबंध व्यक्ति की पवित्र आत्मा से है और कोई उस पवित्र आत्मा को ही परमात्मा मानता है तो मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं है। मैं भी इस बात से पूरी तरह इत्तेफाक रखता हूँ कि आत्मा परमात्मा है। इस प्रकार का कोई आत्मिक पुजारी है तो मेरी आस्था और संवेदना उनके साथ है। यदि कोई अपनी उसी आत्मा को कलात्मक तरीके से मूर्ति में रूपांतरित कर उसकी पूजा करता है तो भी मुझे उसकी आस्था से प्रेम है। लेकिन आत्मा से पड़े कोई दैवीय चमत्कार की बात करता है तो यह बुद्धि विलास के अतिरिक्त और क्या हो सकता है? मुझे इसमें ईश्वरीय चमत्कार की संभावना न के बराबर दिखाई देती है। अब आप ही यह सोचिए कि जिसकी कल्पना ही बुद्धि विलास की उपज हो उसके अनुयायियों की मानसिक सोच क्या होगी? जिसकी उत्पत्ति ही भ्रम फैलाने के लिए की गई हो उसके प्रवर्तक कितने शातिर दिमाग वाले होंगे? आपको लगता है कि ऐसे पूजपाठी आत्मिक रूप से पवित्र और ईमानदार होंगे? थोड़े-बहुत लोग शायद मिल जाए, मैं उनकी बात नहीं कर रहा हूँ। मैं उस बड़ी संख्या की बात कर रहा हूँ जो पूजापाठ और कर्मकांड की आड़ में अपनी मंशा पूर्ण करते हैं।

अहिंसा की बात न तो मुझे हिन्दू धर्म में दिखाई देती है न इस्लाम में। हिन्दू देवी-देवताओं को आज भी पशुओं की बलि दी जाती है। इस्लाम में मांसाहार के बिना किसी का भोजन गले से नहीं उतरता। बाइबिल का हर पेज दूसरों को सजा देने में व्यस्त है। सिख धर्म के बारे में मुझे विशेष जानकारी नहीं है। साहित्य में जितना पढ़ा उतनी ही जानकारी है और साहित्य के अनुसार सिख धर्म का जो धार्मिक ग्रंथ है वह पवित्र आत्माओं का संचित कोश है। उसमें कहीं बलि, हिंसा, दंड की बात शायद नहीं लिखी गई है। अगर मैं गलत हूँ तो उदाहरण सहित करेक्ट कीजिएगा। 

अब जहाँ तक बात प्रेम की है तो सभी धर्म यह दावा करता है कि शांति और प्रेम उसके धर्म का संदेश है। लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि सबसे ज्यादा झगड़े धर्म के नाम पर ही हो रहे हैं। तरह-तरह की हिंसाएं, यातनाएँ धर्म के नाम पर हो रही हैं, दी जा रही हैं। खबर यह है कि 22 अप्रैल को पहलगाम में जो आतंकी हमला हुआ, उसमें भी धर्म पूछकर, कलमा पढ़वाकर गोलियाँ मारी गईं। इसलिए यह बात तो बिल्कुल बेबुनियाद है कि धर्म हिंसक नहीं है। और पाप का डर तो पापियों को कतई नहीं है। जितने चोर, उचक्के, भ्रष्टाचारी, पापी हैं, पूजापाठ, हवन-कीर्तन कर रहे हैं। अगर मैं समाजशास्त्र के अनुसार इस विषय पर बात करूँगा तो बात बहुत लम्बी हो जाएगी। संक्षेप में इतना ही कहना चाहूंगा कि पूजपाठी और हवन-कीर्तन करने वाले लोग समाज के ही विरुद्ध षड्यंत्र करने के लिए ऐसा करते हैं। उसे खुशफहमी है कि वह देवकुल से है और सामने वाला व्यक्ति दानव कुल से। इसलिए उसे मारने, उसके मरने से उसे आत्मिक शांति मिलती है। यही कारण है कि उसे पाप में ही पुण्य दिखाई देता है। आपने यदि 'आक्रोश' फिल्म देखी है तो आपको याद होगा कि दलितों की हत्या करने से पहले एक समाज हवन और हथियार पूजन करता है। 

मैं नास्तिक नहीं हूँ। मेरी पत्नी बहुत पूजापाठ करती है। मुझे मेरी पत्नी और उसके पूजापाठ दोनों से बहुत प्यार है। इन दिनों पत्नी की याद बहुत आ रही है। महीने भर से उससे दूर हूँ। बात होती है तो मन करता है कि आज ही फ्लाइट पकड़कर दिल्ली के लिए उड़ जाऊँ। बहरहाल, मनुष्य होने के नाते हर चीज में मेरी आस्था है। जब मैं नॉनवेज खाता था तो उसमें भी मुझे ईश्वर दिखाई देता था। बचपन में जब माँ दुर्गा को चढ़ाए गए बकरे का मांस खाता था तो उसकी हर बोटी में मुझे दुर्गा माँ दिखाई देती थी। शादी के बाद मुर्ग मसल्लम धीरे-धीरे कम होता गया और अब मृतप्राय है। मैं बहुत ज्यादा आस्तिक और आध्यात्मिक हूँ। लेकिन यह सब आंतरिक है। मैं घंटा बजाने की बजाए जाप करता हूँ, आरती उतारने की बजाए मन को टटोलता हूँ, चढ़ावा की बजाए विश्वास अर्जित करता हूँ। मुझे बाह्य प्रदर्शन समाज में सभ्य और साधु दिखने के अतिरिक्त और कुछ नहीं लगता। लेकिन आपको सब पता है कि लोग कितने सभ्य और साधु हैं। बताने की कोई जरूरत नहीं है। वैसा ही कुछ बॉलीवुड में भी है और मुझे लगा कि शायद यहाँ की बहुत सारी बातें बहुत से लोगों को न मालूम हो, इसलिए लिख रहा हूँ। 

बॉलीवुड की सबसे विचित्र बात यह है कि यहाँ पूजापाठ बहुत ज्यादा है। भरोसा बहुत कम। हर ऑफिस में बड़े-बड़े मंदिर है। लेकिन उसमें बैठे शख्स को रोज मुर्गे की तलाश है। इसे ही वह ईश्वरीय फल समझता है। अगर आप ईमानदार हैं तो आपको ईश्वर से घृणा हो जाएगी। पूजापाठ से आपका विश्वास उठ जाएगा। देवी-देवता चोरों के पहरेदार नजर आने लगेंगे। और मैं यह सब ऐसे ही नहीं कह रहा हूँ। ऐसा कहने के पीछे बड़ा कारण है। हो सकता है कि आपको मेरी बात बुरी लगे। लेकिन आप एक बार खुद इस विषय पर विचार करके देखिए और खुद से सवाल कीजिए कि इतना पूजापाठ लोग किसलिए करते हैं? चोरी करने के लिए? अभी हाल ही में नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने एक इंटरव्यू में कहा है कि बॉलीवुड चोर है। कहीं से गीत चुरा लिया, कहीं से कहानी चुरा ली, किसी का आईडिया चुरा लिया बगैरह बगैरह। सिद्दीकी साहब के अनुसार बॉलीवुड कॉपीवुड है। अभी उन्होंने फिल्म अभिनेताओं को 'भांड' भी कहा है। उस पर दूसरे अध्याय में बात करूंगा। मौलिक क्रिएटिविटी खत्म है यहाँ। 

वर्सोवा विलेज के हर कमरे के कोने में मंदिर है। बेचारा स्ट्रगलर आर्टिस्ट दिनरात धूप अगरबत्ती दिखाते हैं। कमरे में मौजूद सभी स्ट्रगलर पूजा करते हैं। लेकिन एक-दूसरे से भयभीत हैं, असुरक्षित महसूस करते हैं कि कहीं कोई उसका काम न छीन ले। बाहर का स्ट्रगल दिखता है लेकिन हर कमरे के भीतर, मंदिर-मूर्ति के नीचे जो स्ट्रगल चल रहा है वह दिखाई नहीं देता। आप उनसे मिलिए और बात कीजिए। उसका दर्द आपको पता चलेगा। जो मेहनत कर रहा है वह तो देवी-देवता को पूज ही रहा है, जो दूसरों की मेहनत पर पानी फेर रहा है, दूसरों का क्रेडिट, काम छीन रहा है वह भी देवी-देवता पूज रहा है। अब आप जरा सोचिए कि जो चोर है वह ईश्वर से क्या प्रार्थना करता होगा। मैंने एक प्रार्थना की कल्पना की है। हो सकता है कि लोग भी कुछ ऐसी ही प्रार्थना कर रहे हों। सुनिए-

ॐ जय जगदीश हरे 
स्वामी जय जगदीश हरे
हम दुष्टों के संकट
हम चोरों के संकट
क्यों न जल्दी हरे
स्वामी जय जगदीश हरे

आज किसे मैं फँसाउं
बोलो कैसी जतन करे
जल्दी से दू गो मुर्गा
स्वामी जल्दी से दू गो बकरा
भेज दो हमरा घरे
स्वामी जय जगदीश हरे

बॉलीवुड क्रिएटिव लोगों का कब्रिस्तान है। जिसकी लेखनी से हीरो बनकर लोग इतराते हैं, उसकी जरा भी कद्र नहीं करते। उसको सिर्फ काम चाहिए। लेखक का नाम नहीं। यहाँ पैसा अफरात है। एक्टर्स की आमदनी का कोई हिसाब नहीं है। प्रोड्यूसर तो एक्टर्स से भी दो कदम आगे हैं। धन के मामले में, आदमी वे अभिनेताओं की तुलना में थोड़े-बहुत ठीक होते हैं। क्योंकि उनसे मिलना थोड़ा सरल है। एक्टर्स तो खुद को खुदा समझता है। इस पर एक अध्याय अलग से है। उसमें डिटेल से लिखा है कि एक्टर, उसके इर्द-गिर्द के लोग कैसे हैं। बॉलीवुड मरणासन्न क्यों है। 

बॉलीवुड में हर एक्टर के संपर्क में कुछ ऐसे राइटर हैं जो उनके कृपापात्र बने रहने के लिए दिनरात उनके लिए लिख रहे हैं और अपना गुजर बसर कर रहे हैं। उन्हें लेखन के लिए नाम नहीं, इनाम मिलता है। लिख कोई और रहा है और हीरो कोई और बन रहा है। शेखी कोई और बघार रहा है। वाहवाही कोई और लूट रहा है।यह वैसा ही है कि कपड़ा किसान का, मेहनत दर्जी की और पहनकर चमक कोई और रहा है। हम पूछते ही नहीं है कि यह कपड़ा किसने तैयार किया है, सिलाई किसने की है। बस कह देते हैं, "यार! क्या लग रहा है!" क्यों? क्योंकि उसने इसकी कीमत चुकाई है। यहाँ जो स्ट्रगलर राइटर है, उसका इस्तेमाल बॉलीवुड ऐसे ही कर रहा है। ऐसे लेखकों को यहाँ घोस्ट राइटर कहा जाता है, जिसकी संख्या बहुत बड़ी तादात में है। और जो घोस्ट राइडर है, चोर है। दूसरों के आईडिया पर लोकप्रियता हासिल करने वाले दरिद्रों की संख्या यहाँ अनगिनत है। एक-एक लेखक की पीठ पर कई-कई भूत सवार है। ये घोस्ट राइटर ही नहीं हैं, घोस्ट Ride भी हैं। दोनों एक-दूसरे की सवारी कर रहे हैं।

समस्या यह है कि यहाँ राइटर भी कुकुरमुत्ते की तरह है। एजुकेशन कुछ नहीं है लेकिन लेखक है। ढंग की कहानी नहीं लिख पा रहे हैं लेकिन लेखक है। संवाद लेखन किसी काम का नहीं है लेकिन लेखक है। लेखकों की भरमार है। उसी में ठीक ठाक लोग भी पीस रहे हैं। लॉबी और कास्ट बॉलीवुड के दो दैत्य तो हैं ही जो क्रिएटिविटी को निगल रहे हैं। लॉबी और कास्ट के नाम पर लिंक बनाए जा रहे हैं, बन रहे हैं। लॉबी बड़ा दैत्य है। कास्ट छोटा। लेकिन है दोनों दैत्य ही। जो भी हो, हर लेखक कुछ न कुछ आईडिया सर्व करते हैं। वह आईडिया ही गायब कर दिया जाता है। मानो जैसे शरीर से आत्मा ही निकाल ली गई हो। लॉबी तगड़ी हो, संपर्क अच्छा हो तो खराब चीज को भी सुधार कर ठीक कर लिया जाता है। लॉबी तगड़ी न हो, संपर्क अच्छा न हो तो अच्छी चीज को भी बेकार कहकर टाल दिया जाता है। बस वहीं से विश्वास डोलने लगता है। मुंबई के बारे में जितनी भी बातें कही जाती हैं, दिमाग में सब दौड़ने लगती है। आपकी वर्षों की मेहनत और लगन को जब कोई झटके से नकार देता है तो न केवल जोर का झटका लगता है बल्कि उसकी नियत पर ऑटोमेटिक शक होने लगता है। जिसने एक भी अच्छी फिल्म नहीं बनाई हो और यदि वह आपकी कहानी की आलोचना करता है तो सचमें दिमाग चकरा जाता है। और ऐसे लोग इस इंडस्ट्री में कुकुरमुत्ते की तरह है। जिसको कहानी की शून्य समझ है उसे कहानी का सुपरवाइजर बनाया गया है। माना कि फिल्म निर्माण का कार्य एक व्यवसाय है और हर निर्माता निर्देशक उसी व्यवसाय के अंतर्गत अपने प्रॉफिट को ध्यान में रखकर फिल्म का निर्माण करता है। यह शतप्रतिशत सही है। उसे जिस काम में फायदा होगा वही करेगा। लेकिन जिसने लगातार फ्लॉप फिल्में बनाई हो, जिसने अपने द्वारा चुनी गई कहानियों से हीरो का कैरियर चाट गया हो वह आपकी कहानी को खराब कहता है तो उसकी नियत पर शक होने लगता है। ऐसे ही लोगों के कारण इस इंडस्ट्री में राइटर को सर्वाइव करना पड़ता है। 

बॉलीवुड राइटर एक्टर को परेशान करता है। उसे तोड़ता है और फिर उसके बाद अपने खाँचे में खींचता है, फिट करता है। यह आपसे पैसा, पैसेंस और समय तीनों चीजों की माँग करता है। यहाँ रहना बड़ा मुश्किल है। फैसिलिटी बहुत कम है, खर्चा बहुत ज्यादा है। भागदौड़ बहुत करनी पड़ती है। यह इंडस्ट्री आपको तब तक दौड़ाती है जब तक आप थक न जाओ। फिर यह आराम से आपका इस्तेमाल करती है। यह मकड़ी के जाले जैसी है। मकड़ी पहले कीट पतंगों को फंसाती है। उसके बाद जब कीट पतंग फड़फड़ाना बंद कर देते हैं तब मकड़ी आराम से उसको खाती है। बिल्कुल वही हाल है इस इंडस्ट्री का। उसके बाद भी काम मिल जाए तो गनीमत है। यहाँ आदमी तब तक आपसे प्यार से बात करता है जब तक की आपकी चीजें उसके पाले में नहीं पड़ जाती है। जैसे ही उसने आपसे आपकी चीज ले ली, उसके बाद आप उसको फोन कीजिए, मैसेज कीजिए, ऑफिस का चक्कर लगाइए, कोई फायदा नहीं है। करेंगे, देखते हैं, सोचकर बताता हूँ, यही सब करते-करते आपको इतना थका देंगे कि एक दिन आप खुद ही थक कर उससे दूरी बनाने लगोगे। समस्या यही नहीं है। समस्या यह है कि अब आपकी चीज सेफ रहेगी कि नहीं। ध्यान रखिए, आपकी चीज सिर्फ आप तक ही सेफ रह सकती है, दूसरों के पास नहीं। इस इंडस्ट्री में हर कोई हर किसी के साथ गेम खेल रहा है। यहाँ कोई भी आदमी ऐसा नहीं जिस पर शतप्रतिशत विश्वास किया जा सके। यह बहुत अविश्वसनीय लोगों की इंडस्ट्री है। वर्सोवा विलेज में ऐसे कई राइटर हैं जिनकी कहानी चोरी हो चुकी है। आईडिया गायब हो चुके हैं। मैं ऐसे बहुत लोगों से मिल चुका हूँ। जिसकी आईडिया पर लोग यहाँ पल रहे हैं वे बेचारे 1bhk 1RK में चार-चार, पाँच-पाँच लोगों के साथ रहने को अभिशप्त हैं और जो आईडिया चोर हैं वे आलीशान बंगलों, बैंग्लो में मौज से रह रहे हैं। यहाँ चोर तरक्की कर रहा है, साध वर्सोवा में संड़ रहा है, गल रहा है, उबल रहा है। पता नहीं लोग उन चोरों से इतना मोहब्बत क्यों करते हैं? बड़े-बड़े हीरो, डायरेक्टर, प्रोड्यूसर के पीछे पागल क्यों रहते हैं? इस इंडस्ट्री को बनाने वाले असली हीरो वे लोग हैं जो अच्छी-अच्छी कहानियां लिखते हैं, अच्छे-अच्छे गीत लिखते हैं। लेकिन लेखकों को वह सम्मान नहीं मिलता, सही पैसा नहीं मिलता। जिस फिल्म को करने के लिए बड़े-बड़े एक्टर पचास करोड़, सौ करोड़ की माँग करता है उस फिल्म की कहानी के राइटर को कितना पैसा मिलता है? जबकि कहानी न हो तो फिल्म बन ही नहीं सकती। कहानी ही इस इंडस्ट्री की मदर बोर्ड है। लेकिन उस मदर बोर्ड के साथ होता क्या है? सीधे शब्दों में कहूँ तो इस इंडस्ट्री में 99 प्रतिशत लोग उस मदर के फकर हैं। यानी मदर फकर हैं, मादरचोद हैं। राइटर को सीन से ही गायब कर दिया जाता है। अभी कुछ दिन पहले 'मालेगांव सुपर बॉयज' नामक फिल्म आई है। उसमें राइटर की दुर्गति को दिखाया गया है। जावेद अख्तर साहब की माने तो पिछले दस-पंद्रह सालों से ऐसी फिल्म नहीं बनी है। इस फिल्म में विनीत कुमार सिंह का एक डायलॉग मुझे भी बहुत पसंद आया जब वह कहता है, "याद रख, राइटर बाप होता है बाप।" लेकिन यह इंडस्ट्री उस बाप के साथ क्या करती है? अमिताभ बच्चन को सुपरस्टार किसने बनाया? कहानी ने। सलीम जावेद साहब की जोड़ी उनके पीछे न खड़ी होती तो अमिताभ बच्चन को उबरने में थोड़ा और वक्त लगता। सलीम जावेद साहब बड़े नाम हैं इसलिए इंडस्ट्री ने उन्हें उनका पूरा सम्मान दिया। बाकी राइटर का क्या हुआ? आज जो फिल्में आती हैं, उसके राइटर के बारे में हमें पता ही नहीं चलता कि कौन हैं। बताया क्या जाता है? फलाँ हीरो की फिल्म आ रही है। फलाँ प्रोडक्शन हाउस की फिल्म आ रही है। उसमें फलाँ हीरो है, फलानी हीरोइन है और फलाँ विलेन है। राइटर कौन है नहीं मालूम। यदि राइटर और डायरेक्टर दोनों एक ही हो तो पोस्टर पर उसका नाम थोड़े बड़े अक्षरों में दिख भी जाता है। लेकिन डायरेक्टर और राइटर दोनों अलग-अलग हो तो पोस्टर पर आप राइटर का नाम ढूंढकर देखना। चश्मा लगाकर देखने से शायद दिख जाए। 

मैं वर्सोवा में कई लोगों से मिला। सबका कहना लगभग एक था कि जितने भी बड़े-बड़े प्रोडक्शन हाउस है, जितने भी बड़े-बड़े डायरेक्टर हैं, सब अविश्वसनीय हैं। आपकी कहानी का आईडिया चुरा लेंगे। आप कुछ नहीं कर पाओगे। जो करोड़ों रुपया खर्च करके फिल्म बना सकता है वह लाखों देकर आपका मुँह भी बंद करा सकता है। मुंबई पुलिस किसके लिए काम कर रही है वह तो आप जानते ही हो। मुंबई पुलिस की बात छोड़ दो, पूरे देश की कानून व्यवस्था किसके लिए काम कर रही है वह देखो। सब पैसे वालों के हाथ की कठपुतली है। दूसरों की खामियां दिखाने वाली यह फिल्म इंडस्ट्री अपनी खामियां क्यों नहीं दिखाती है कि वह कितनी बड़ी चोरनी है। कितनी बड़ी गुंडी है। हम लोग कोशिश कर रहे हैं कि कोई अच्छा आदमी मिल जाए जो मेरी कहानी पर फिल्म बनाए। अभी तक उस अच्छे आदमी को ढूंढ ही रहे हैं। लेकिन मिला नहीं। शायद आपको मिल जाए। घूमते रहो। लोगों से मिलते रहो। रिस्क तो लेना ही पड़ेगा। कहानी नहीं सुनाने से भी तो बात नहीं ही बनेगी। कहानी तो आपको सुनानी ही पड़ेगी। अब सामने वाले के मूड पर डिपेंड करता है कि आपकी कहानी उसे पसंद आती है कि नहीं। आप सबसे मिलो। कहीं न कहीं तो बात बन ही जाएगी। इस अंधेरी में इतना भी अंधेर नहीं है। जहाँ अंधेरा घना होता है वहाँ सितारे ज्यादा टिमटिमाते हैं। इस इंडस्ट्री के लोग उसी सितारे की तरह टिमटिमा रहे हैं। आपको कोई न कोई सितारा मिल ही जाएगा। यहाँ इतना भी अंधेर नहीं है जितना लोग कहते हैं। बुरे लोग हैं तो अच्छे लोग भी हैं। आप उनसे मिलो। आपका काम हो जाएगा।

घूमते-घूमते बहुत संभव है कि किसी दिन आपसे कोई ऐसा शख्स टकड़ा जाएगा जो आपकी तक़दीर बदल देगा। यहाँ जब लोग हेल्प करने पर आ जाते हैं तो फिर वे आगा-पीछा कुछ नहीं देखते। लॉबी को ठेंगे पर रखते हैं। कास्ट की ऐसी-तैसी कर देते हैं। उन्हें सिर्फ आपकी ईमानदारी, मजबूरी, मेहनत, कला के प्रति दीवानगी दिखाई देती है। ऐसे लोग भी हैं बॉलीवुड में।  वे ही इस फिल्म इंडस्ट्री को जिंदा रखे हुए हैं। परेशानी दूर करने वाले और मजबूरी का फायदा उठाने वाले दोनों तरह के लोग हैं यहाँ। आइए और ऐसे लोगों को खोजिए, उसके संपर्क में रहिए जो आपकी ईमानदारी और मेहनत की कद्र करे। खुश रहेंगे। 

(यह मेरा निजी अनुभव है। जो देखा है सो लिखा है।)

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