स्पर्श रेखाएं: रमेश ठाकुर
पाँच ज्ञानेंद्रियों में से
खराब हो गई थीं दो इंद्रियां
नहीं खराब हुआ था कर्ण
गली में घुसते ही
पैरों की आहट से
पहचान लेती थी माँ
कि उसके कलेजे का टुकड़ा
दिनभर खटने-भटकने के बाद
उड़ते हुए पक्षियों की तरह
खेतों से लौट रहे पशुओं की तरह
हनहनाता हुआ घर लौट रहा है।
नहीं खराब हुई थी नासिका
घर में घुसते ही
देह के गंध से वह
पहचान लेती थी बेटे को
कहती थी कि
वह मेरी देह की गंध को
तब से जानती है
जब अपनी जंघा पर
कभी चित तो कभी पट
लिटाकर लहसून डुबोये
गर्म सरसो के तेल से
रोएं को रगड़-रगड़कर
रुला देती थी
छाती पीठ लाल कर देती थी
नाक दबाकर
पोंटा बाहर निकालकर
वही सरसो का सुसुम तेल
कान और नाक में
डाल देती थी
दोनों हाथ पकड़कर
दाएं को बाएं
बाएं को दाएं
इतनी जोर से घुमाती थी कि
छर्र से पेशाब छूट जाता था
और इसकी सजा
यह मिलती थी कि
उस कर्मेन्द्री को उघाड़कर
उसमें भी सुसुम तेल
डाल देती थी
बाँया पैर दाँया हाथ
दाँया पैर बाँया हाथ
सबको एक साथ पेट पर
इकट्ठा कर मुट्ठी से पकड़
उठाकर बैठा देती थी।
नहीं खराब हुई थी उसकी त्वचा
हाथ पकड़ते समझ जाती थी कि
अब उसे लाठी लेकर
घर, आँगन और बाहर
नहीं करना पड़ेगा
त्वचा की स्पर्श रेखाएं
तुरंत हृदय तक
यह संदेश पहुंचा देती थी कि
यह वही हाथ है
वही उंगलियां हैं
जिसे पकड़कर कभी वह
अपने बेटे को
घर, आँगन और बाहर
चलना सिखलाती थी।
रमेश ठाकुर
दिल्ली विश्वविद्यालय
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