भूषण और बिहारी: रमेश ठाकुर
1. हिन्दू दरबार
2. मुस्लिम दरबार
3. मुस्लिम समर्थक हिन्दू दरबार
4. हिन्दू समर्थक मुस्लिम दरबार
पहले दरबार में स्वराज की भावना प्रबल थी। दूसरे में शासन में बने रहने की। शेष दोनों में चापलूसी करके, राजाओं के आदेश पर सभी धर्मों के लोगों पर अत्याचार करके बड़ाई पाने की भावना थी। उनका अपना कोई स्वतंत्र वजूद नहीं था। जो आदेश मिलता था, करते थे। मारते थे, मरते थे।
पहले और दूसरे दरबार के कवियों ने अपने-अपने आश्रयदाता की वीरता की खूब प्रशंसा की है। उनकी कविताओं में ओज प्रबल है, शेष सब बातें पीछे हैं। बाकी के दोनों दरबार के राजाओं की मनःस्थिति मॉर्चरी में काम करने वाले उस कसाई की-सी होती थी जो न चाहते हुए भी चीड़फाड़ करता है। ऐसा करने के लिए वह शराब की मदद लेता है। ये राजा श्रृंगार की मदद लेते थे। भोग-विलास में मन उलझाए रहते थे ताकि अपनी दीनता-हीनता को बर्दाश्त कर सके। इसलिए इनके दरबारी कवियों ने छिछोरेपन की सारी हदें पार कर दीं। गुलाम को आराम चाहिए, सुविधाएं चाहिए। इन्हें यही सब मिल रहा था। अपने इस निकम्मेपन, बुजदिली को उसने श्रृंगार के चादर से ढंग लिया।
लेकिन पहले दरबार में सबसे प्रभावशाली राजा छत्रपति शिवाजी महाराज हुए। भूषण ने यदि उनकी प्रशंसा में सीमाएँ लांघी है तो उसे नजरअंदाज किया जाना चाहिए। तत्कालीन समाज और देश में ऐसा ही राजा होना चाहिए था जो राज्य के लिए नहीं, स्वाराज के लिए लड़े। बिहारी के आश्रयदाता जयसिंह जैसा नहीं जो औरंगजेब की तरफ से हिंदुओं के खिलाफ बैटिंग कर रहे थे।
बिहारी पहले शाहजहां के दरबार में रहते थे। वहाँ से छूटे तो सीधा औरंगजेब के मुखबिर जयसिंह के दरबार में पहुँचे। भूषण को उनके बड़े भाई चिंतामणि त्रिपाठी पहले औरंगजेब के दरबार में ले गए। लेकिन भूषण तुरंत समझ गए कि वहाँ रहकर वे अपनी बात नहीं कह पाएंगे इसलिए उन्होंने दरबार छोड़ दिया और शिवाजी महाराज के पास चले गए। इससे साफ जाहिर होता है कि भूषण कितने सच्चे और राष्ट्रवादी कवि थे। उनके हृदय में व्यक्तिगत भोग-विलास की कोई लालसा नहीं थी। थी तो सिर्फ स्वराज की कल्पना। वरना सुविधा पाते ही विचार को बदलने में वक्त ही कितना लगता है? भूषण औरंगजेब की ही प्रशंसा शुरू कर देते तो क्या औरंगजेब उन्हें मालामाल नहीं कर देते? भूषण ने अपनी प्रवृत्ति के अनुकूल दरबार का चयन किया।
बिहारी और भूषण मुगल दरबार से ही निकले थे। लेकिन मार्ग दोनों के अलग-अलग हुए। एक शाहजहां के दरबार से निकलकर उसके पुत्र औरंगजेब के विश्वासपात्र जयसिंह के दरबार में गए। दूसरा औरंगजेब के दरबार से निकलकर हिन्दू हृदय सम्राट और स्वराज का स्वप्न देखने वाले वीर सेनानी छत्रपति शिवाजी महाराज के पास पहुँचे। बिहारी ने श्रृंगार में धुनि रमाया, भूषण वीर धुन में उन्मग्न हुए।
बिहारी ने "स्वारथ सुकृत न श्रम वृथा, देख विहंग विचार" कहकर जयसिंह को आत्ममंथन करने के लिए जरूर प्रेरित किया लेकिन उनकी वीरता के कसीदे नहीं गढ़ पाए। ऐसा नहीं है कि वीरता के पद वे नहीं लिख सकते थे। इतने बड़े माहिर कवि से हम ऐसी कल्पना कर भी नहीं सकते। लेकिन बिहारी ने नहीं लिखा। वे जानते थे कि राजा का मनोबल बढ़ाने से कुछ नहीं होगा। जैसा बादशाह कहेंगे जयसिंह वही करेंगे। उन्हीं के हाथों उनके अपने ही भाई-बंधुओं का कत्ल करवाएंगे। हो सकता है, इसीलिए उसने वीरता के सारे शब्द जब्त कर लिए हो और फूहड़पन को अपना लिया हो। चालाक, चतुर और समझदार तो वे थे ही।
साहित्य में भूषण जैसे कवि और छत्रपति शिवाजी महाराज जैसे नायक की खोज आवश्यक है। भारत के लिए ऐसे ही कवि और राजा उदाहरण होने चाहिए, जो अपनी आन, बान और शान के लिए जिए-मरे। चाटुकार और मुगलों की अधीनता स्वीकार कर लेने वाले कवि-राजा की कोई प्रासंगिकता नहीं होनी चाहिए। वे कलावंत थे, बहादुर भी थे, लेकिन उससे लाभ क्या हुआ? उस कला का क्या ही महत्त्व जो विरोधियों की तलवार पर शान चढ़ा रही हो?
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भूषण की तारीफ ऐसे ही नहीं की होगी। उन्होंने भूषण को राष्ट्रकवि कहा, इसे हिंदी में सर्वसम्मति से स्वीकार कर लेना चाहिए। यह भूलकर कि भूषण ने शिवाजी की प्रशंसा में कवि मर्यादा का ध्यान रखा है कि नहीं। कवि-मर्यादा का उल्लंघन गोस्वामी तुलसीदास ने भी किया है। मानस में अतिश्योक्ति का भंडार है। बावजूद गोस्वामी जी हिंदी के सिरमौर कवि हैं। भूषण क्यों नहीं हो सकते?
रमेश ठाकुर
दिल्ली विश्वविद्यालय
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