IITian बाबा: एक मूल्यांकन : रमेश ठाकुर
गोस्वामी तुलसीदास पत्नी की फटकार से सन्यासी बन गए। पिता ने बालपन में ही त्याग दिया था। घर में काम करने वाली दासी ने उन्हें पाल पोसकर बड़ा किया। तुलसी जब पाँच साल के हो गए तब भी पिता ने उन्हें स्वीकार नहीं किया।
IITian बाबा प्रेम में धोखा मिलने के कारण सन्यासी बने। मीडिया में उसकी प्रेम कहानी के किस्से सर्कुलेट हो रहे हैं। उसकी बात सुनकर लगता है कि पिता से उसका संबंध अच्छा नहीं रहा है। माता-पिता को भगवान न मानकर वह कलयुग का ट्रैप मानता है। बहुत ठगा हुआ बाबा लगता है।
IITian बाबा बहुत पढ़ा-लिखा है। लेकिन क्या फायदा जब सारी विद्या धर्म को बचाने में खप जाए? मनुष्यत्व से बड़ा कोई धर्म नहीं। 'सबसे ऊपर मानुष सत्तो ताहर उपरे नाई' हम पढ़ चुके हैं। 'मानुष पेम भए वैकुंठी' से भी साहित्य के अध्येता भलीभांति परिचित हैं। समस्त मानव के कल्याण की कामना करने वाला मानव धर्म ही सर्वोत्तम धर्म है। हिन्दू-मुस्लिम आदि विभाजनकारी धर्म है। इस प्रकार के स्थूल धर्मों में विभक्त समाज को आपस में लड़ते-झगड़ते, एक-दूसरे से स्वयं को श्रेष्ठ बताकर डिंग मारते हुए देखकर यही लगता है।
IITian बाबा स्वयं हिन्दू धर्म के ट्रैप में है। उसकी बातों से ऐसा लगता है कि वह हिन्दू धर्म को बचाने निकला है। मुसलमानों के प्रति उसके मन में दया भाव नहीं है। यह किस प्रकार का धर्म है? कैसा सन्यास है? IITian बाबा सर्वधर्म समभाव को लेकर आगे बढ़ता तो भटके हुए समाज को कुछ सही राह बता पाता। लेकिन पता चल रहा है कि वह खुद दिशा भटक गया है।
एक होनहार विद्वान जब दिशा भटक जाता है तब वह कइयों के लिए विनाशकारी बन जाता है। कबीरदास ने कहा है कि "जब गुरु-चेला दोनों अँधे हो तो दोनों का कुएँ में गिरना तय है।" यदि आप शम्बूक की कथा को सच मानते हैं तो शम्बूक हत्या प्रसंग को याद कीजिए। राम शम्बूक से तर्क कर रहे थे। लेकिन गुरु ने उन्हें उकसाया। गुरु द्वारा उकसाए जाने पर ही राम ने शम्बूक की हत्या की थी। गुरु द्रोण का किस्सा भी आप जानते हैं। इसलिए पढ़ा-लिखा होने से ही कोई बहुत बड़ा गुरु या धार्मिक मनुष्य नहीं हो जाता है बल्कि एक शातिर गुरु सज्जन और चरित्रवान शिष्य को भी हत्यारा बना सकता है। इसलिए गुरु का मानवतावादी होना जरूरी है।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने रामानंद को 'आकाश धर्मा गुरु' कहा है। आकाश का धर्म क्या है? यही कि वह समान रूप से समस्त मानव के ऊपर अपनी छाया, कृपा बनाए रखता है। हालांकि प्रारंभ में रामानंद ऐसे थे नहीं। होते तो कबीरदास को शिष्य जरूर बनाते। लेकिन बाद में उन्होंने दलित-पिछड़ों को शिष्य बनाया।
जैसे-जैसे मनुष्य में मनुष्यत्व का भाव जागृत होता जाता है वैसे-वैसे उसके आचरण में बदलाव आता है। गुरु को आकाश धर्मा ही होना चाहिए। कबीरदास के सतगुरु साहित्य के सर्वोत्तम गुरुओं में से एक होने चाहिए। आपने नहीं पढ़ा है तो 'गुरु को अंग' अंश जरूर पढ़िए।
गुरु गड़ेरिया शिष्य भेड़ समान है। सही गुरु नहीं मिला तो वह एक पूरी पीढ़ी को तहस-नहस कर देगा। आज के शिष्यों को ऐसे जहरीले गुरुओं से सतर्क रहना चाहिए। उसके मुँह खोलते ही बच्चों को समझ जाना चाहिए कि वह शिक्षा देने के लायक है या नहीं। यदि कोई व्यक्ति या गुरु धर्म के आधार पर बच्चों का माइंड वाश करता है तो समझ लेना चाहिए कि वह एक शातिर और खतरनाक आदमी है। गुरु का काम धर्म, राष्ट्र से ऊपर होना चाहिए।
संत-असंत स्वभाव के बारे में गोस्वामी तुलसीदास ने 'रामचरितमानस' के बालकांड में दर्जनों पद लिखें हैं। 'संत समाज आनंद और कल्याणमय है जो चलता-फिरता तीर्थराज है। इस तीर्थराज में स्नान का तत्काल फल यह मिलता है कि कौआ कोयल बन जाता है।' 'बिना सत्संग के विवेक नहीं मिलता। सत्संगति आनंद और कल्याणकारी है।' 'दुष्ट भी सत्संगति पाकर सुधर जाता है।' ये सब संतों के स्वभाव हैं।
असंत दूसरों का काम बिगाड़ने के लिए अपना शरीर तक त्याग देते हैं- "पर अकाजु लगि तनु परिहरहीं।" उन्हें दूसरों को पीड़ा देने में आनंद आता है। उसके हृदय में सदा संताप रहता है। वे दूसरों के सुख और ऐश्वर्य को देखकर जलते रहते हैं। दूसरों का पतन देखकर, दूसरों की निंदा सुनकर उन्हें सुख मिलता है। जो इनके साथ भलाई का काम करते हैं, ये दुष्ट उनके साथ कपट करते हैं। असंत निर्दयी, कुटिल और कपटी होते हैं। लेन-देन में झूठा आचरण करते हैं। मीठा बोलते हैं लेकिन अंदर से कठोर होते हैं। वे अपने परिवार वालों के विरोधी होते हैं। अपने माता-पिता का सम्मान नहीं करते। भाई-बहन से प्यार नहीं करते। ऐसी न जाने कितनी ही बातें गोस्वामी जी ने कही हैं।
IITian बाबा के मन में भी माता-पिता को लेकर कोई सम्मान भाव नहीं है। आप सोचिए कि यह किस तरह का बाबा है। कैसा पढ़ा-लिखा है? एक तरफ राम हैं जो उपदेश देते हैं कि पिता चाहे कितना ही विधर्मी क्यों न हो, पुत्र का काम उसकी सेवा, उसकी आज्ञा का पालन करना है। दूसरी तरफ यह बाबा है। राम के उपदेश का पालन करने वाला समस्त 'मानस' में एक ही व्यक्ति दिखाई देता है और वह है मेघनाद। राम को इसमें शामिल इसलिए नहीं किया जा सकता क्योंकि दशरथ विधर्मी नहीं थे।
अब हमारे सामने एक बड़ी चुनौती यह है कि या तो हम अपने साहित्यिक पुरखों के बताए, सुझाए मार्ग पर चलें या फिर वर्तमान के धर्म के ठेकेदारों, नए व्याख्याकारों के सुझाए मार्ग पर चलें। यदि हम अपने पुरखों के मार्ग पर चलते हैं तो इससे यह सिद्ध हो जाएगा कि वर्तमान के ये ठेकेदार ढोंगी हैं। और यदि इनके बताए मार्ग पर चलते हैं तो इससे यही सिद्ध होगा कि हमारे साहित्यिक पुरखे फर्जी ज्ञान दे रहे थे।
अंत में मैं यही कहना चाहूंगा कि चाहे शिक्षक हो या संत-महात्मा, यदि वह हिन्दू-मुस्लिम जैसे स्थूल धर्मों की व्याख्या करता है तो समझना चाहिए कि वह ज्ञानी नहीं, संगठन विशेष का टूल्स है। ज्ञानी पुरुषों का काम धार्मिक व्याख्याकारों का काम नहीं है। उसके लिए मनुष्यत्व ही सबसे बड़ा धर्म होना चाहिए। एक अच्छा गुरु ही सुंदर भविष्य का निर्माण कर सकता है वरना वह भेड़-बकरियों की तरह मनुष्य को हवन कुंड में झोंक देगा।
रमेश ठाकुर
दिल्ली विश्वविद्यालय
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