IITian बाबा: एक मूल्यांकन, भाग-2 : रमेश ठाकुर

IITian बाबा का पिछले कुछ दिनों से लगातार वीडियो देख रहा हूँ। उसकी बहुत सारी बातें प्रभावित करती हैं। बात करते हुए जब वह हँसता है तो उसे देखकर दिल रोने लगता है। ऐसी क्या मजबूरी रही होगी कि एक हँसता-मुस्कुराता व्यक्ति आज सन्यासी के भेष में भटक रहा है? जब इस पर विचार करता हूँ तो जगत की धूर्तता, कटुता, बेईमानी मन को कचोटने लगती है। 

वर्ष 1999 में टॉम हैंक्स की एक फिल्म आई थी। फिल्म का नाम The Green Mile है। इस फिल्म में एक John Coffey नाम का कैरेक्टर है, जिसका रोल Michael Clarke ने किया है। वह बिना किसी अपराध के जेल में बंद है। टॉम हैंक्स को जब पता चल जाता है कि यह आदमी निर्दोष है तो वह उसे बचाने की पूरी कोशिश करता है। लेकिन कॉफय जेल से बाहर नहीं निकलना चाहता। वह लोगों की धूर्तता, कटुता, मक्कारी, बेईमानी से इतना दुःखी है कि इस दुनिया से उसका मोहभंग हो जाता है। यही वजह है कि वह जेल से बाहर नहीं निकलता और अंत में एलेक्ट्रिक चेयर पर बैठकर मृत्यु को स्वीकार करता है।

IITian बाबा की बात सुनकर, उसका खिलखिलाता हुआ चेहरा देखकर मुझे कॉफय की याद आती है। इस हँसी के पीछे उसने कितना दर्द छुपाया होगा? कोई यूँही चरसी, गंजेड़ी नहीं बन जाता है। जरा-सी तकलीफ आते ही आदमी नशीली पदार्थों का सेवन करने लगता है। जो दिनरात तकलीफ में हो उसके बारे में सोचकर देखना चाहिए। वह क्या खाता होगा, कहाँ रहता होगा, कैसे रहता होगा इसके बारे में सोचकर बुरा लगता है। 

IITian बाबा पढ़ा-लिखा आदमी है। स्वेच्छा से उसने सन्यास ग्रहण नहीं किया है। उसे इस ओर धकेला गया है। हर जगह से हताश और निराश होकर ही उसने इस जीवन को स्वीकार किया है। 

बहुत पढ़े-लिखे व्यक्ति की बहुत बड़ी समस्या जीवनयापन की होती है। नौकरी न मिले तो उसका जीवन रिक्शा चालक से भी बदतर हो जाता है। न तो वह जल्दी किसी कम्पनी में मजदूरी का काम कर सकता है और न ही रिक्शा, रेड़ी चला-लगा सकता है। ऐसी स्थिति में अमूमन सब गलत रास्ते का चुनाव करता है। IITian बाबा ने जो रास्ता चुना है उसके लिए बहुत हिम्मत चाहिए। उसके जानने वालों ने न जाने उसका कितना उपहास उड़ाया होगा, लेकिन वह आज भी मुस्कुरा रहा है।

बाबा पढ़ा-लिखा नहीं होता तो किसी भी मठ या अखाड़े में सर्वाइव कर जाता। पढ़े-लिखे होने की कीमत उसे आध्यात्मिक दुनिया में भी चुकानी होगी। क्योंकि वहाँ भी ज्यादातर अनपढ़, कूपढ सन्यासी भरे-पड़े हैं जो दिनरात जहर उगलने का काम करते हैं, अनाप-शनाप बोलते रहते हैं। आसन पर बैठा बाबा इसको स्वीकार करेगा? नहीं करेगा। हर जगह इन्फिरियर काम्प्लेक्स के शिकार मरीज हैं। धार्मिक दुनिया कोई पाकसाफ दुनिया नहीं है। जहाँ भी दस कौड़ी का सवाल होगा वहाँ दो कौड़ी के लोग मिलेंगे। वहाँ इसके लिए सर्वाइव करना मुश्किल होगा। पहले से मठ पर कब्जा जमाए साधु-महात्मा इसे टिकने नहीं देगा।

IITian बाबा की चुनौती कुंभ मेले में आए ठग बाबाओं से बड़ी है। वे सब गिद्ध की तरह उसके पीछे पड़े होंगे। क्योंकि वह फर्राटेदार अंग्रेजी बोलता है, गीता, रामायण, मानस का पद सुनाता है। तार्किक बात करता है। यह ठग बाबाओं को हजम होगा? वह तो कहेगा ही कि वह नालायक है, बदमाश है, लम्पट है। समाज जिसे ऐसा कहता है उसका दूसरा साइड उतना ही स्ट्रांग होता है। जो समाज खुद लूट-खसोट के दलदल में धँसा हो वह क्या ही दूसरों को सर्टिफिकेट देगा?

IITian बाबा माता-पिता को कलयुग का ट्रैप कहता है। पहले लेख में मैंने इस पर सवाल उठाया है। लेकिन इस विषय पर इस लेख में मैं अपना दूसरा विचार व्यक्त करूँगा। हमें हर तरीके से सोचना चाहिए। 

कोई अपने माता-पिता से इतना दुःखी कैसा हो सकता है? बार-बार मेरे मन यही सवाल आ रहा है। बहुत सारे लोग यह कह रहे हैं कि माँ-बाप ने नहीं पढ़ाया होता तो वह IIT कैसे करता? सही बात है। लेकिन बच्चों को पढ़ाने का मतलब यह नहीं है कि उसके सम्पूर्ण व्यक्तित्व पर कुंडली मारकर बैठ जाए। माँ-बाप ने पैदा किया है तो उसका फर्ज है कि वह उसे पाल-पोसकर बड़ा करें, उसकी जरूरतों को पूरा करें। यह उसकी नैतिक जिम्मेदारी है। 

आज के दौर में यह बहुत अजीब लगता है कि माँ-बाप ही यह डिसाइड करे कि उसकी बेटी किस लड़के के साथ ब्याह करेगी, बेटा किस लड़की से शादी करेगा। जीवन तो लड़का-लड़की को जीना है। इसमें माता-पिता का क्या रोल? सिवाय जातीय और वर्गीय एषणा की पुष्टि के और कोई दूसरी बात इसमें दिखाई नहीं देती। इस बात की क्या गारंटी है कि माता-पिता के द्वारा तय किया गया रिश्ता जीवन भर बना ही रहेगा? आज के समय में किसी भी रिश्ते की कोई गारंटी नहीं है और न ही कोई गारंटी दे सकता है। क्योंकि सवाल सिर्फ पेट का नहीं है। पेट के अलावे भी बहुत कुछ हैं जो रिश्तों की स्थिरता निर्धारित करती हैं। मसलन रहन-सहन, विचार-व्यवहार और सबसे बड़ी चीज यौन आवश्यकता। सेक्स लाइफ भी रिश्तों को प्रभावित करती हैं। इसकी गारंटी माँ-बाप लेंगे?

माँ-बाप को अब चाहिए कि वह बच्चे को ही निर्णय लेने दें। अपने निर्णयों से ही आज की पीढ़ी मजबूत बनेगी। माता-पिता का काम बस हर परिस्थिति में उसका साथ देना होना चाहिए। अपनी इच्छा बच्चों पर थोपने से उसके मन में वितृष्णा ही पैदा होगी। इसलिए बेहतर यही है कि अपने वर्गीय और जातीय संस्कार को त्यागकर वे बच्चों की खुशी को प्राथमिकता दें। बच्चों पर की जाने वाली खर्चों की वसूली उसकी इच्छाओं को मारकर नहीं की जानी चाहिए। समय बदल रहा है। माता-पिता को भी बदलना होगा।

आज भले IITian बाबा के पिता कुछ भी कह रहे हो, लेकिन बाबा की बातों से लगता है कि उन्होंने जरूर किसी न किसी बात को लेकर उस पर दवाब बनाया होगा। माता-पिता पूज्यनीय हैं। लेकिन इससे उन्हें अपने बच्चों पर ज्यादती करने की छूट नहीं मिल जाती है। हॉलीवुड में बहुत-सी ऐसी फिल्में बनी हैं जिसमें दिखाया गया है कि पिता अपने बच्चे को जोर से डांट भी नहीं सकते। बच्चे चाहे तो इस पर एक्शन ले सकते हैं। 

मुझे जो बात थोड़ी-बहुत खटकी वह धर्म से संबंधित है। मुस्लिम धर्म के प्रति जो उसके मन एक नकारात्मक सोच है, उसका परिष्कार जरूरी है। और यह हो जाएगा। यदि वह अपना अलग रास्ता अख्तियार करता है तो। बाबाओं की संगति में रहकर न तो वह बाबाओं द्वारा स्वीकृत होगा और न ही उसे जनता का समर्थन मिलेगा। उसे तमाम बाबाओं का साथ छोड़कर अपने लिए अलग मठ बनाना चाहिए और सर्वधर्म समभाव का उपदेश देना चाहिए। फिर वह अच्छा सन्यासी बन सकता है। वरना हिंदुओं के ट्रैप में फँसकर रह जाएगा।

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