पद्मावत की कथा


‘पद्मावत एक प्रेमाख्यानक महाकाव्य है. इसमें पद्मावत, रत्नसेन और नागमती की मार्मिक प्रेम कहानी वर्णित है. कहानी का पूर्वार्द्ध कल्पना प्रसूत है तो उत्तरार्द्ध ऐतिहासिक और यथार्थ. इसकी सम्पूर्ण कथा इस प्रकार है-

सिंहलद्वीप के राजा गन्धर्वसेन और रानी चम्पावती के यहाँ पद्मावत का जन्म हुआ. पद्मावत जब बड़ी होने लगी तब उसके विवाह के प्रस्ताव आने लगे. गन्धर्वसेन नकारात्मक उत्तर देकर सबको लौटा देते हैं. बारह वर्ष की अल्पायु में ही पद्मावत वयस्क समझी जाने लगी. वह सात खण्डों वाले धवलगृह में अकेली रहने लगी. बोलने-बतियाने, खेलने-कूदने के लिए सखियाँ मिलीं. ज्ञान चर्चा के लिए गुणी और पण्डित स्वभाव वाला तोता हीरामन मिला. एक दिन उसने हीरामन से अपनी काम-विकलता और विवाह के प्रति पिता की उदासीनता का कारण पूछा. हीरामन ने योग्य वर ढूंढने के लिए पद्मावत से आज्ञा माँगा. लेकिन किसी दुर्जन ने इसकी जानकारी राजा तक पहुँचा दी. राजा ने तोते को मारने का आदेश दिया. पद्मावत ने किसी तरह उसे बचा लिया. हीरामन समझ गया कि अब पकड़ा गया तो जिंदा बचना मुश्किल है. वह डर गया था. एक दिन जब पद्मावत सखियों के साथ सरोवर में स्नान करने गई. मौका पाकर हीरामन उड़ गया और ढाक के जंगल में पहुँचा. उसे पिंजरे में न देखकर पद्मावत बहुत रोई. सखियों ने उसे समझाया कि वह स्वतंत्र हो गया है. अब बंधन में नहीं आएगा.

उधर बहेलिया ने हीरामन को पकड़ लिया और उसे बेचने के लिए बाजार ले गया. चित्तौड़गढ़ के एक व्यापारी के साथ एक साधारण ब्राह्मण सिंहल की हाट में आया था. सभी व्यापारियों ने कुछ न कुछ खरीदारी की. ब्राह्मण के पास पैसा कम था. वह सोच ही रहा था कि इतने कम पैसे में वह क्या खरीदे कि तभी उसकी नजर बहेलिए पर पड़ी. हीरामन को देखकर ब्राह्मण मोहित हो गया. उसने हीरामन से उसके गुणों के बारे में पूछा. हीरामन ने उत्तर दिया, “जब मैं गुणी था तब मुक्त था. मैं बिकने आ गया हूँ. अब मेरे गुण कहाँ." ब्राह्मण समझ गया कि वह गुणी और पण्डित है. उसनेउसे खरीद लिया और चित्तौड़गढ़ लेकर आया-

“बाम्हन सुआ बेसाहा, सुनि मति बेद गरंथ।

 मिला आइ कै साथिन्ह, भा चितउर के पंथ।।“

चित्तौड़गढ़ में उस समय पिता चित्रसेन की मृत्यु के उपरांत पुत्र रत्नसेन गद्दी पर बैठा था. हीरामन की प्रशंसा सुनकर उसने ब्राह्मण से लाख रूपए में उसे खरीद लिया. एक दिन रत्नसेन शिकार पर था. उसकी रूपगर्विता पत्नी नागमती ने हीरामन से पूछा, “मुझ जैसी सुन्दरी क्या कोई दूसरी भी इस दुनिया में है?” उसने हँसकर पद्मावत का वर्णन किया. कहा, “उसमें और तुममें दिन और अँधेरी रात का अंतर है.”-

“का पूछहु सिंहल कै नारी। दिनहिं न पूजै निसि औंधयारी।।

गढ़ी सो सोने सौंधै भरी सो रूपै भाग।

सुनति रूखि भइ रानी, हिये लोन अस लाग।।

पद्मावत सुगंधित सोने से गढ़ी गई है. रूप और भाग्य उसमें सहज व्याप्त हैं. नागमती के पैरों तले से जमीन खिसक गई. उसका अहंकार चूर-चूर हो गया. यह सुनना उसके लिए असह्य था. यह सोचकर डर गई कि यदि यही बात रत्नसेन को मालूम हो गई तो रूप-प्रलोभन से वह योगी बनकर घर से चल देगा. उसने तुरंत अपनी धाय से हीरामन को मार डालने के लिए कहा. धाय को लगा कि यदि राजा को पता चल गया कि हीरामन को उसने मारा है तो राजा उसको दंडित करेगा. इस भय से उसने हीरामन को छिपा दिया. रत्नसेन हीरामन को न पाकर क्रोध से धधक उठा. अंत में हीरामन को सामने लाया गया. हीरामन ने उसे पद्मावत के सौंदर्य का वर्णन किया. कहा, “उसका रूप ऐसा है कि वह अपनी उपमा आप ही है”- “का सिंगार ओहि बरनौ राजा। ओहिक सिंगार ओहि पै छाजा।।”

सुनकर रत्नसेन मूर्छित हो गया. जब चेतना लौटी तब पद्मावत की खोज में योगी बनकर निकल पड़ा. हीरामन उसे सिंहलद्वीप का रास्ता दिखा रहा था. रत्नसेन ने माँ और नागमती के विलाप पर ध्यान न दिया. वह पद्मावत के प्रति पूरी तरह आसक्त हो चुका था. जायसी लिखते हैं-

“जेहि के हिये पेम-रंग जामा। का तेहि भूख नींद बिसरामा।।

बन औंधयार रैनि औधयारी। भादों बिरह भएठ अति भारी।।

किंगरी हाथ गहे बैरागी। पाँच तन्तु धुन ओही लागी।।

नैन लाग तेहि मारग, पद्मावति जेहि दीप।

जैस सेवतिहिं सेवै, वन चातक, जल सीप।।”

रत्नसेन के साथ सोलह हजार कुँवर भी योगी बनकर चले. एक महीने तक लगातार चलते हुए सब कलिंग के समुद्र तट पर पहुँचे. वहाँ के राजा ने सिंहलद्वीप जाने के लिए जहाज दिया. सात समुद्र पार करके वे सभी सिंहलद्वीप पहुँचे. सातवाँ समुद्र मानसर था. मानसर के सुन्दर रूप को देखकर प्रसन्नता हुई. मानो वह कमल की बेल बनकर मन पर छा गई हो. अँधेरा समाप्त हो गया था. रात्रि की कालिमा मिट चुकी थी. कवि लिखते हैं-

“देखि मानसर रूप सोहावा। हिय हुलास पुरइनि होइ छावा।

गा औंधयार रैन मसि छूटी। भा भिनसार किरिन रवि फूटी।।

भौर जो मनसा मानसर, लीन्ह कँवल रस आइ।

घुन जो हियाव न कै सका झूर काठ तस खाइ।।”

हीरामन के निर्देश पाकर रत्नसेन महादेव के मंदिर में साथी योगियों के साथ बैठकर पद्मावत का ध्यान करने लगा. हीरामन पद्मावत से मिलने गया. जाते समय उसने रत्नसेन से कहा, “वसंत पंचमी के दिन पद्मावत इसी महादेव के मण्डप में वसंतपूजा के लिए आएगी. उस समय तुम वह अपार रूप देख सकोगे”-

“तुम्ह गौनहु ओहि मण्डप, हौ पद्मावति पास।

पूजै आइ बसन्त जब, तब पूजै मन आस।।”

बहुत दिनों बाद हीरामन को पाकर पद्मावत बहुत रोई. हीरामन ने उसे सबकुछ बताया. रत्नसेन के गुणों का भी बखान किया. उसके प्रेम की दृढ़ता की चर्चा की. पद्मावत को उसकी प्रेमविकलता ने प्रभावित किया. रत्नसेन की विकलता उसके मन में भी जगह बनाने लगी. उसने वसंत पंचमी के दिन महादेव दर्शन का निश्चय किया. हीरामन ने मंदिर जाकर ध्यानलीन रत्नसेन तक यह संदेश पहुँचा दिया.

वसंत पंचमी के दिन पद्मावती सखियों के साथ महादेव दर्शन के लिए मंदिर गई. पूजा खत्म करके वह योगियों को देखने के बहाने वहाँ गई जहाँ रत्नसेन ध्यान में बैठा था. रत्नसेन उसके रूप को देखकर मूर्छित हो गया. बेहोश हो गया. उसे होश में लाने के लिए पद्मावत ने उसके ऊपर चन्दन का लेप किया. इससे वह और भी गहरी नींद में सो हो गया. पद्मावत ने उसके हृदय पर चन्दन से लिख दिया, “हे योगी! जब मैं तेरे द्वार पर आई तो तू सो गया. यदि मुझ पर तेरी अनुरक्ति होगी तो तू गढ़ में प्रवेश कर सतमंजिले महल तक आएगा तभी मुझे प्राप्त कर सकेगा”-

“तब चंदन आखर हिए लिखे। भीख लेइ तुइ जोग न सिखे।।

धरी आइ तब गा तू सोई। कैसे भुगुति परापति होइ।।

अब जौं सूर अहौ ससि राता। आएउ चढ़ि सो गगन पुनि साता।।”

रत्नसेन की चेतना लौटी. लेकिन तब तक न वसंत था, न वाटिका थी, न खेल था, न खेलने वाली. वह पश्चात्ताप से विलाप करने लगा और जलकर मरने का निश्चय किया. उसकी विरहाग्नि सारे संसार को जला सकती है, इस भय से देवताओं ने महादेव और पार्वती को सूचित किया वे कुछ करें. महादेव कोढ़ी वेश में बैल पर बैठकर उसके पास आए और जलने का कारण पूछा. पार्वती उसके प्रेम की परीक्षा लेने के लिए उसके पास अप्सरा बनकर प्रकट होती हैं और कहती हैं, “मैं स्वर्ग की अप्सरा हूँ. मुझे इन्द्र ने तुम्हारे लिए भेजा है. पद्मावत तो गई. अब मैं हूँ.” रत्नसेन ने उत्तर दिया, “मुझे न स्वर्ग चाहिए न अप्सरा. मुझे पद्मावत के अतिरिक्त कोई कामना नहीं”-

“भलेहिं रंग अछरी तोर राता। मोहिं दोसरें सौं भावा न बाता।।

जौं जिउ देइहौं ओहि कै आसा। न जानौं काह होइ कबिलासा।।”

पार्वती ने महादेव से कहा कि इसका प्रेम सच्चा है. आप इसकी सहायता कीजिए. रत्नसेन ने महादेव को पहचान लिया और उनके चरणों में गिर पड़ा. महादेव ने उसे सिद्ध गुटिका दी और सिंहलद्वीप में प्रवेश का मार्ग बताया. उसके बाद अन्तर्ध्यान हो गये.

 

सिद्ध गुटिका पाकर रत्नसेन ने योगियों के साथ सिंहलद्वीप को घेर लिया. दुर्ग रक्षकों ने गन्धर्वसेन को इसकी सूचना दी. राजा ने दूत भेजा, दूत ने संदेश दिया, “तुम्हें जो भीख चाहिए माँग लो और जप-तप के लिए अन्यत्र स्थान चुनो.” रत्नसेन ने पद्मावत की माँग की. दूत क्रोधित होकर लौटा. गन्धर्वसेन को बहुत गुस्सा आया. उसने योगियों को मारकर भगा देने का आदेश दिया. लेकिन मंत्रियों ने योगियों से न उलझने की सलाह दी. इधर हीरामन ने रत्नसेन का प्रेमसंदेश पद्मावत तक और पद्मावत का संदेश रत्नसेन तक पहुँचा दिया. रत्नसेन का विश्वास दृढ हुआ. रात में वह गढ़ के भीतर घुस गया. लेकिन सुबह होते ही उसे साथियों सहित घेर लिया गया. गन्धर्वसेन योगियों को मौत की सजा देना चाहते थे. योगी भी युद्ध के लिए तैयार थे. रत्नसेन ने उन्हें यह कह कर रोक लिया कि प्रेम-मार्ग में क्रोध का कोई स्थान नहीं है. योगियों सहित रत्नसेन बन्दी बना लिए गए. पद्मावत घबराई. हीरामन ने उसे समझाया कि उसका अनिष्ट नहीं हो सकता-

“तुम ओहिके घट, वह तुम माहाँ। काल कहाँ पावै वह छाहाँ।।

अस वह जोगी अमर भा परकाया परवेस।

आवै काल, गुरुहिं तहँ देखि सो करै अदेस।।

रत्नसेन को फाँसी देने के लिए लाया गया. उसे देखकर सभी को पता चल गया कि वह राजपुत्र है. पद्मावत का नाम रट रहा था. महादेव-पार्वती पुनः भट-भटिनी का रूप धारण कर प्रकट हुए. महादेव ने गन्धर्वसेन को समझाया कि यह योगी नहीं राजा है. तुम्हारी कन्या के लिए योग्य वर है. राजा के मन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा. उसके और क्रोधित हुआ. योगियों का दल लड़ने के लिए आगे बढ़ा. हनुमान आदि देवता भी उनकी सहायता के लिए मौजूद थे. महादेव ने राजा से फिर कहा कि यह योगी चित्तौड़गढ़ का राजा रत्नसेन है. पद्मावत के लिए योगी बना है. हीरामन इसे लेकर यहाँ आया है. हीरामन का नाम सुनते ही गन्धर्वसेन समझ गया. हीरामन को बुलाया गया. उसने महादेव की बात का समर्थन किया. रत्नसेन बंधनमुक्त हुआ. गन्धर्वसेन ने पुत्री का विवाह रत्नसेन से कर दिया. योगियों का विवाह भी पद्मिनी कुमारियों से कर दिया गया. वे कुछ समय तक सिंहलद्वीप में रहे. कवि ने लिखा है-

”पद्मावति धौराहर चढ़ी। दहुँ कस रवि जेहि कहँ ससि गढ़ी।।      

सखी देखावहिं चमकै बाहू। तू जस चाँद सुरज तोर नाहू।।

सहसौ कला रूप विधि गढ़ा। सोने के रथ आवै चढ़ा।।

रूपवंत जस दरपन धनि जू जाकर कंत।

चाहिए जैस मनोहर मिला सो मन भावंत।।”

उधर चित्तौड़गढ़ नागमती को राजा की प्रतीक्षा करते हुए एक वर्ष हो गए. उसे जीवन में केवल अंधकार दिखाई देता है. उसके विलाप ने पशु-पक्षियों को भी विचलित कर दिया. आधी रात में एक पक्षी ने नागमती से दुःख का कारण पूछा- “तू फिरि फिरि दाहै सब पाखी। कैहि दुख रैन न लावसि आँखी।।

नागमती का संदेश लेकर पक्षी सिंहलद्वीप गया और एक पेड़ पर आश्रय लिया. एक दिन रत्नसेन शिकार खेलता हुआ उसी पेड़ के नीचे ठहरा. तभी पक्षी ने उसे नागमती का मर्म संदेश सुनाया. रत्नसेन नागमती की स्मृति से विह्वल हो उठा-

“भा उदास जौ सुना संदेसू। सँवरि चला मन चितउर देसू।।

कँवल उदास जो देखा भँवरा। थिर न रहै अब मालति सँवरा।।”

रत्नसेन को नागमती के लिए विकल देखकर पद्मावत उदास हुई. रत्नसेन ने गन्धर्वसेन से विदा ली. राजा ने उसे अपार धन, द्रव्य दिया. रत्नसेन धन पाकर प्रसन्न था. वह समुद्र तट पर पहुँचा. समुद्र स्वयं याचक के रूप में प्रकट हुआ और उसने धन के 40वें भाग की माँग की. रत्नसेन ने मना कर दिया. रत्नसेन समुद्र पार भी नहीं कर पाया था कि भयंकर तूफान आ गया. जहाज दिशा भूलकर लंका की ओर बह निकले. वहाँ विभीषण का एक राक्षस मछली मार रहा था. उसने छलपूर्वक कहा कि वह जहाज को सही रास्ते पर ला देगा. लेकिन वह जहाजों को एक भयंकर समुद्र में ले जाकर फँसा दिया जहाँ से बाहर निकल पाना कठिन था. जहाजों का संतुलन नष्ट हो गया. हाथी, घोड़े, मनुष्य डूबने लगे. समुद्र के राजपक्षी ने आकर रक्षा की. वह राक्षस को चंगुल में चाँपकर उड़ गया. जहाज तब तक खण्ड-खण्ड हो चुके थे. जहाज के एक तख्ते पर रत्नसेन और दूसरे पर पद्मावत, दोनों अलग-अलग दिशा में बह गए-

“बोहित टूक-टूक सब भए। एहु न जाना कहँ चलि गए।।

भए राजा रानी दुइ पाटा। दूनौ बहे चले दुइ बाटा।।

काया जीउ मिलाइ कै, मारि किइ दुइ खंड।

तन रोवै धरती परा, जीउ चला बरम्हंड।।”

पद्मावत समुद्र की कन्या लक्ष्मी के पास पहुँची. लक्ष्मी सहेलियों संग खेल रही थी. वह पद्मावत को घर ले गई. उसका उपचार किया. होश में आते ही पद्मावत रत्नसेन के लिए विलाप करने लगी. लक्ष्मी ने पिता समुद्र से रत्नसेन का पता लगाने के लिए कहा. रत्नसेन ऐसे निर्जन स्थान पर जा पहुँचा था जहाँ केवल मूँगों के टीले थे. वह कटार से अपना गला काटने ही जा रहा था कि समुद्र ब्राह्मण रूप में आ पहुँचा. उसने आश्वासन दिया कि वह उसे पद्मावत तक पहुँचा देगा. घाट पर लक्ष्मी ने रत्नसेन के प्रेम की परीक्षा ली. वह पद्मावत का रूप धारण कर उसके सामने आई लेकिन रत्नसेन ने मुँह फेर लिया. तब लक्ष्मी ने उसे पद्मावत से मिला दिया. पद्मावत को विदा करते समय लक्ष्मी ने उसे पान का बीड़ा दिया. उसमें रत्न और हीरे थे. समुद्र ने अमृत, हंस, सोनहा पक्षी, शार्दूल और सोना बनाने का पारस पत्थर- ये पाँच रत्न भेंट किए. समुद्र के पथ प्रदर्शकों ने उन्हें जगन्नाथपुरी पहुँचा दिया. राजा चित्तौड़गढ़ पहुँचा और दोनों रानियों के साथ सुखपूर्वक रहने लगा. नागमती से नागसेन और पद्मावत से कमलसेन- राजा को ये दो पुत्र हुए.

चित्तौड़गढ़ की राजसभा में राघव चेतन नामक पण्डित यक्षिणी सिद्धि के कारण चर्चित था. एक दिन राजा ने पण्डितों से दूज की तिथि के बारे में पूछा. राघव ने उत्तर दिया 'आज'. अन्य पण्डितों ने कहा, 'आज नहीं, कल'. राघव-चेतन ने यक्षिणी के प्रभाव से उसी दिन दूज का चाँद दिखा दिया. अगले दिन फिर दूज के लक्षण देखे गए तो पण्डितों ने राजा को राघव-चेतन के छल के बारे में बताया. राघव-चेतन का भेद खुल गया. उसे देश-निर्वासन का दंड मिला. पद्मावत को इस बात की चिंता हुई कि ऐसे पण्डित का कुपित होना राज्य के लिए हितकर नहीं है. उसने सूर्यग्रहण के बहाने बुलाकर उसे अपने हाथ का एक अमूल्य कंगन दान किया. वैसा कंगन कहीं प्राप्त नहीं था. पद्मावत छिपकर कंगन दे रही थी लेकिन राघव-चेतन ने उसे देख लिया और अचेत हो गया-

“पद्मावती जो झरोखे आई। निहकलंक ससि दीन्ह दिखाई।।

ततखन राघव दीन्ह असीसा। भएउ चकोर चंदमुख दीसा।।

कंकन एक कर काढ़ि पवारा। काढ़त हार टूट और मारा।।

जानहु टूटि बीजु भुईं परी। उठा चौधि राघव चित हरी।।

परा आइ भुईं कंकन, जगत भएउ उजियार।

राघव बिजुरी मारा, बिसंभर किछु न सँभार।।”

जब होश में आया तब निश्चय किया कि वह दिल्ली के बादशाह को पद्मावत के सौंदर्य के बारे में बता देगा. फिर वह जरूर उसे प्राप्त करने के लिए चित्तौड़गढ़ पर आक्रमण करेगा. राघव-चेतन बदले की भावना से ग्रसित हो गया था. दोनों दिल्ली पहुँचा और अलाउद्दीन से पद्मावत के सौंदर्य का वर्णन किया-

“कँवल बखानौ जाइ तहँ जहँ अलि अलाउद्दीन।

सुनि कै चढ़े भानु होइ, रतन जो होइ मलीन।।”

सबै चितेरे चित्र के हारे। ओहिक रूप कोइ लिखै न पारे।।

अलाउद्दीन की वासना जागृत हुई. उसने राघव-चेतन का आदर सत्कार किया और सरजा नामक एक दूत को चित्तौड़गढ़ भेजा. उसने रत्नसेन को लिखा, “पद्मावत को दिल्ली भेज दो.” रत्नसेन ने क्रोधित होकर में दूत को लौटा दिया. अलाउद्दीन ने चित्तौड़गढ़ पर आक्रमण कर दिया. वह आठ वर्ष तक गढ़ को घेरे रहा लेकिन गढ़ को नहीं तोड़ पाया-

“आठ बरिस गढ़ छेंका रहा। घनि सुलतान कि राजा महा।।

आइ साह अँबरावं जो लाए। फरै झरै पै गढ़ नहि पाए।।”

राजपूतों की स्त्रियाँ जौहर के लिए चिता सजाकर रखी थीं. अलाउद्दीन की अधीनता से बचने का एकमात्र उपाय जौहर ही था. उसी समय दिल्ली से हरेव लोगों के आक्रमण की सूचना मिली. दिल्ली हाथ से जाने के डर से उसने रणनीति बदल दी. दूत से पुनः कहला भेजा, “बादशाह का पद्मावत के लिए कोई आग्रह नहीं है. तुम अपने राज्य का भोग करो. साथ ही चंदेरी भी तुम्हारी है. समुद्र से जो पाँच रत्न तुमने प्राप्त किये हैं उन्हें देकर अधीनता स्वीकार कर लो.” रत्नसेन ने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया. अलाउद्दीन ने संदेश भेजा कि अगले दिन वह गढ़ देखने आ रहा है.

अलाउद्दीन के लिए राजसी भोज का आयोजन किया गया. सरजा और राघव-चेतन के साथ बादशाह आया. गोरा और बादल ने राजा को सतर्क किया कि इसमें अलाउद्दीन का षड्यंत्र भी हो सकता है. लेकिन रत्नसेन ने इस पर ध्यान नहीं दिया. बादशाह कई दिनों तक ठहरा और एक दिन पद्मावत के महल की ओर चला गया. वहाँ कई रूपवती स्त्रियाँ स्वागत की मुद्रा में खड़ी थीं. बादशाह ने राघव-चेतन से पूछा कि इनमें पद्मावत कौन है. राघव ने कहा, “ये तो उसकी दासियाँ हैं. इनसे उसकी कोई समानता नहीं हो सकती है.” बादशाह एक दिन महल के सामने बैठकर रत्नसेन के साथ शतरंज खेल रहा था. उसने एक दर्पण इस आशय से रख लिया था कि यदि पद्मावत गवाक्ष पर आएगी तो उसकी छाया-आकृति दर्पण में दिख जायगी. पद्मावत गवाक्ष पर आई. दर्पण में उसकी छाया देखकर बादशाह अचेत हो गया-

“बिहँसि झरोखे आइ सरेखी। निरखि साह दरपन मुँह देखी।।

होतहिं दरस परस भा लोना। धरती सरग भएउ सब सोना।।

रुख माँगत रुख तो सहुँ भएऊ। भा शह मात खेल मिटि गएऊ।।

राजा भेद न जानै झाँपा। भा बिसँभार, पवन बिनु काँपा।।”

बादशाह ने राघव-चेतन से पूछा. दोनों ने कहा कि वह पद्मावत ही थी. बादशाह ने राजा से विदा माँगी. राजा उसके साथ-साथ गया. हर फाटक पर बादशाह राजा को कुछ न कुछ देता जा रहा था. छठे फाटक पर माण्डवगढ़ तथा सातवें पर चंदेरी दी. लेकिन सातवाँ फाटक पार करते ही रत्नसेन बन्दी बना लिए गए. बादशाह उसे दिल्ली ले गया और तरह-तरह की यातनाएँ दी. उसकी मुक्ति की एक ही शर्त थी- पद्मावत. रत्नसेन तैयार नहीं हुआ तो उसे अन्धकूप में डाल दिया गया.

चित्तौड़गढ़ में सभी व्याकुल थे. रानियाँ विलाप कर रही थीं. कुंभलनेर का राव देवपाल रत्नसेन को शत्रु मानता था. वह बहुत ईर्ष्यालु था. उसने पद्मावत के अपहरण की योजना बनाई. उसने एक दूती को पद्मावत के पास भेजा. दूती ने छलपूर्वक कहा, “मैं तुम्हारे बचपन की धाय हूँ.” पद्मावत उसके गले लगकर रोती रही. दूती ने कहना शुरू किया, “रत्नसेन तो गया. अपना यौवन क्यों उजाड़ती हो? कुंभलनेर के राव देवपाल के पास चलो.” पद्मावत उसका भेद जान गई और उसे प्रताड़ित करके  भगा दिया. वह रत्नसेन को मुक्त कराने के लिए अनेक प्रकार के यत्न दान-पुण्य करने लगी. यह सुनकर अलाउद्दीन ने भी फिर छल किया. उसने एक युवती दूती को जोगिन के वेश में भेजा. वह पद्मावत से कहती है कि उसने रत्नसेन को बन्दी गृह में देखा है. उसे कठिन यातनाएँ दी जा रही हैं. पद्मावत उसके साथ दिल्ली जाने को तैयार हो गई. लेकिन तभी सखियों ने उसे रोक लिया और गोरा बादल से सहायता माँगने को कहा.

पद्मावत गोरा बादल के घर गई. दोनों आकुल हो उठे. उसने भी छल का बदला छल से ही लेने का विचार किया. दोनों ने सोलह सौ पालकियाँ तैयार की. प्रत्येक पालकी में एक सशस्त्र सैनिक को बैठाया. सबसे मूल्यवान पालकी में लोहार बैठा. उसने प्रचार किया कि पद्मावत दिल्ली जा रही है. साथ में सोलह सौ सखियाँ भी हैं. दिल्ली पहुँचकर गोरा सीधे बंदीगृह में पहुंचा. रक्षक अधिकारी को दस लाख रुपये भेंट देकर कहा, “बादशाह से जाकर कहो कि रानी पद्मावती सखियों के साथ आ गई हैं. उसने अनुरोध किया है कि चित्तौड़ के भण्डार और गढ़ की चाभी उसके पास है. यदि एक घड़ी के लिए वह राजा से मिल सके तो चाभी उसे सौंप कर महल में आ जाय.” दस लाख की भेंट पाकर बादशाह ने पालकियों पर ध्यान नहीं दिया. पद्मावत को राजा से मिलने की अनुमति मिल गई. पालकी राजा के पास लाई गई. पालकी से निकलकर लोहार ने बन्धन काट दिया. राजा सशस्त्र घोड़े पर जा बैठा. अन्य पालकियों में से भी सशस्त्र सैनिक बाहर निकल गए. गोरा बादल ने तलवारें खींच लीं और विजयी मुद्रा में राजा को लेकर चित्तौड़ की ओर चल पड़े-

“गोरा बादल खाँडै काढ़े। निकसि कुँवर चढ़ि चढ़ि भए ठाढ़े।।

तीख तुरंग गगन सिर लागा। केहुँ जुगुति करि टेकी बागा।।

जो जिउ ऊपर खड़ग सँभारा। मरनहार सो सहसन्ह मारा।।

भई पुकार साह सौं, ससि औ नखत सो नाहि।

छरकै गहन गरासा, गहन गरासे जाहि।।”

बादशाह ने बड़ी फौज लेकर रत्नसेन का पीछा किया. हजार सैनिकों को लेकर गोरा बादशाह की सेना को रोकने के लिए अड़ गया. बादल शेष सैनिकों और रत्नसेन को लेकर चित्तौड़गढ़ चला. गोरा ने बहुत देर तक प्रतिरोध किया परन्तु अंत में सैनिक समेत मारा गया.

चित्तौड़गढ़ पहुँचने के बाद रत्नसेन को देवपाल की कुटिलता का पता चला. वह क्रोध से भर गया. सेना लेकर कुंभलनेर पहुँच गया. देवपाल ने उसे द्वन्द्व युद्ध के लिए चुनौती दी. रत्नसेन ने चुनौती स्वीकार कर ली. देवपाल ने रत्नसेन को विष बुझी साँग मारी जो नाभि को भेदकर पीठ पीछे जा निकली. देवपाल का धड़ भी रत्नसेन के प्रहार से अलग हो गया. रत्नसेन उसका कटा हुआ सिर लेकर चित्तौड़गढ़  की ओर चला. लेकिन मार्ग में उसकी दशा बिगड़ गई. उसने चित्तौड़गढ़ की रक्षा का भार बादल को सौंप दिया और अंतिम साँस ली. उसके शव को चित्तौड़गढ़ ले जाया गया. राजा के शव के साथ नागमती और पद्मावत दोनों रानियाँ सती हो गईं. अलाउद्दीन ने चित्तौड़गढ़ पर कब्ज़ा कर लिया-

“जौहर भइ सब इस्तरी पुरुष भए संग्राम।

बादसाह गढ़ चूरा चितउर भा इसलाम।।” 


डॉ. रमेश कुमार राज 

दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली 

8448971626, 8810399646

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