अधर्म के खिलाफ धर्म की लड़ाई लड़ता है ‘बंदा’


घर की नींव और पेड़ों की जड़ मजबूत हो तो बड़ी से बड़ी प्राकृतिक आपदाएँ भी उसे नहीं उखाड़ सकतीं। ठीक उसी तरह झूठ चाहे कितना ही सामर्थ्यवान, बलवान क्यों न हो, यदि सच के लिए लड़ने वाला एक भी अदना-सा कमजोर और साधारण बंदा अड़ जाए तो उसे धराशायी कर देता है। सिर्फ एक बंदा काफी है का बंदा यही करते हुए हमें दिखाई देते हैं। जिस दृढ़ता और निडरता के साथ वे तथाकथित बाबा से लड़ते हैं, वह निडरता डरे हुए समाज को उद्वेलित करती है और भविष्य में भी उसे ललकारती रहेगी।

       फिल्म की शुरुआत कमला नगर थाने से होती हैं जहाँ पीड़िता (नु सिंह) अपने माता-पिता के साथ बाबा के खिलाफ शिकायत करने जाती हैं। जिस महिला पुलिस के सामने पीड़िता रोजनामचा भरती है, वह महिला पुलिस अपने सीनियर अधिकारी को फोन चैट के माध्यम से इसकी सूचना देती है। दोनों के बीच हुई बातचीत इस प्रकार है-

Sir, come high-profile case.

Crime?

Rape of minor.

POCSO

Filling Roznamcha

Ok, file FIR after medical examination.

इस बातचीत के बाद पीड़िता को मीडिया की भीड़ से बचाते हुए मेडिकल जाँच के लिए भेजा जाता है।

       वर्ष 2013-14 की बात है। मैं हिन्दू कॉलेज से एम.ए. की पढ़ाई कर रहा था। आर्ट्स फ़ैकल्टी के पीछे रामजस कॉलेज है जिसके दोनों तरफ की सड़कें कमला नगर जाती हैं। मैं किताब लेने कमला नगर गया था। आशाराम बापू के समर्थन में लोग पम्पलेट बाँट रहे थे। पम्पलेट बाँटने वालों में ज्यादातर महिलाएँ, लड़कियाँ और सरदार थे। उस पम्पलेट में बाबा द्वारा किए गए कामों की लंबी लिस्ट थी। इस फिल्म के 7वें कोर्ट रूम दृश्य में नामी वकील श्री वेंकेश्वर स्वामी यही लिस्ट गिनाते हुए नजर आते हैं। वे कहते हैं- “बाबा ने स्कूल, हॉस्पिटल बनवाए हैं। सारे विश्व को अच्छा बना रहा है बाबा।” इस बात का जवाब देते हुए पीसी सोलंकी (नायक) जो कहते हैं, उसे सुनकर स्वामी के चेहरे की चमक फीकी पड़ जाती है। सोलंकी कहते हैं- “स्कूल, हॉस्पिटल बनाने से किसी को रेप करने का लाइसेन्स नहीं मिल जाता।” काम के बदले काम और सहयोग के बदले सेक्स कतई नहीं होता है। हो भी नहीं सकता। जयशंकर प्रसाद की कालजयी कृति कामायनी (1935) के मनु को यही भ्रम था। उन्हें लगा कि इड़ा के उजड़ प्रदेश को पुनर्जीवित कर देने से इड़ा उनकी हो जाएगी। लेकिन इड़ा मनु की इस कुत्सित मंशा पर पानी फेर देती है। एक जगह वह मनु को सुनाती भी है-

“जो क्षण बीतें सुख-साधन में उनको ही वास्तव लिया मान

वासना-तृप्ति ही स्वर्ग बनी, यह उल्टी मति का व्यर्थ-ज्ञान

तुम भूल गए पुरुषत्व-मोह में कुछ सत्ता है नारी की

समरसता है संबंध बनी अधिकार और अधिकारी की।”

साहित्य की स्त्री मनु को जवाब देती है। लेकिन समाज की स्त्रियाँ स्त्री के खिलाफ ही बाबा के समर्थन में पम्पलेट बाँटती हैं। यह बहुत ही शर्मनाक बात है! अधिकांश अपराध का कारण यही है कि सच जानते हुए भी लोग अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत नहीं करते। अपराधी बाहुबली हुआ तो चूँ तक भी नहीं करते। लेकिन इसके लिए सिर्फ जनता को ही दोषी ठहराना उचित नहीं है। क्योंकि जनता अपराध के खिलाफ लड़ती है पुलिस और कोर्ट-कचहरी के सहारे। लेकिन यह सहारा निर्दोष जनता के हक में कितना काम करता है? इसी फिल्म का सबसे पहला वकील बाबा के बेटे से पैसों की डील करते हुए पाए जाते हैं। जनता निर्बल होती नहीं है, सिस्टम उसे निर्बल बना देता है। पुलिस, जज, वकील आदि की खरीद-फरोख्त न्यायिक व्यवस्था का स्याह पक्ष है और गवाहों की हत्या अकाट्य सत्य। इस फिल्म में चार-चार गवाहों की हत्या इस बात का प्रमाण है।

       फिल्म का दूसरा दृश्य बाबा के आश्रम का है, जहाँ वे रामचरितमानस की चौपाई के माध्यम से भक्तों को सत्संग के द्वारा विवेक प्राप्ति का ज्ञान दे रहे हैं- “बिनु सत्संग विवेक न होई। रामकृपा बिनु सुलभ न सोई॥” अर्थात् सत्संग के बिना विवेक नहीं होता है और भगवान श्री रामचंद्र की कृपा के बिना सच्चे संत नहीं मिलते हैं।बाबा सत्संग के प्रभाव और प्रभु कृपा की बात तो करते हैं लेकिन स्वयं संत स्वभाव की उपेक्षा करते हैं। संत स्वभाव की सुंदर व्याख्या गोरखनाथ ने की है। वे कहते हैं- “अवधू रहिबा हाटे-बाटे रुष-विरष की छाया, तजिबा काम क्रोध लोभ मोह संसार की माया।” अर्थात् संतों का स्वभाव तो काम, क्रोध, मद (अहंकार), लोभ, मोह का त्यागकर घूम-घूमकर जीवन यापन करना और उपदेश देना है। वे कभी राह में होते हैं तो कभी गाँव या बाजार में। कभी धूप में भटकते हैं तो कभी छांव में। वे सभी प्रकार के मनोविकारों का त्याग कर जनकल्याण हेतु भ्रमण करते हुए समय बिताते हैं। आजकल के बाबाओं की तरह नहीं जो बड़े-बड़े आसन लगाकर शुल्क लेने के बाद प्रवचन देते हैं। बाबा मानसके सुंदरकाण्ड के दोहा संख्या 38 को ही याद रखते तो उनकी दुर्गति न होती। कामांध रावण से मंदोदरी कहती हैं- “काम क्रोध मद लोभ सब, नाथ नरक के पंथ। सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत॥38॥” अर्थात्त, ‘हे नाथ! काम, क्रोध, मद और लोभ- ये सब नरक के रास्ते हैं। इन सबको छोड़कर श्री रामचन्द्रजी को भजिए जिन्हें संत लोग भजते हैं, या फिर संतों की तरह श्री रामचन्द्रजी का भजन कीजिए।बाबा यह नहीं भजते इसलिए सजा के भागी बनते हैं। गोस्वामी तुलसीदास का ही दोहा है- “तुलसी यह तनु खेत है, मन बच कर्म किसान। पाप पुण्य द्वै बीज हैं, बवै सो लवै निदान॥” बाबा ने वही पाया जो उन्होंने बोया। यह बड़ी विडम्बना है कि धर्म का ज्ञान देने वाले बाबा स्वयं बड़े अधर्मी हैं!

       इस फिल्म में कुल मिलाकर 9 कोर्ट रूम दृश्य हैं। एक स्थान पर कुछ सेकेंड के अंतराल पर दो बार कोर्ट का दृश्य दिखाया जाता है। उस हिसाब से कुल 10 कोर्ट रूम दृश्य हो जाते हैं। पहली सुनवाई (जिला न्यायालय, जोधपुर) में बाबा पर एक साथ कई धाराएँ लगाई जाती हैं। जैसे- Sec-432, 370/4, 120B, 506, 354A, 376D, 376 2F, 509, 5G/6, 7/8 of the protection of children from sexual offense Act 2012 and Juvenile justice care and protection of children Act 2000 आदि। बाबा को POCSO के अंतर्गत दोषी करार देकर पंद्रह दिन के लिए पुलिस हिरासत में भेज दिया जाता है। इसी सुनवाई के बाद वकील बाबा के बेटे से पैसों की डील करते हैं। एक महिला पुलिसकर्मी के सहयोग से पीड़िता के पिता सोलंकी से मिलते हैं। सोलंकी एक-एक कर पीड़िता और उसके माता-पिता का बयान दर्ज करते हैं।

       दूसरी सुनवाई में सोलंकी कोर्ट में पीड़िता की तरफ से वकालत करते हुए नजर आते हैं। इस सुनवाई में POCSO पर खूब बहस होती है। बाबा का वकील (प्रमोद शर्मा) पीड़िता को वयस्क साबित करने की पूरी कोशिश करते हैं लेकिन सोलंकी के ठोस तर्क और सबूत के आगे शर्मा को पराजित होना पड़ता है। सोलंकी हर हाल में केस जीतना चाहते हैं। क्योंकि उन्हें पता है कि बेल मिल जाने के बाद बाबा फिर हाथ नहीं आएँगे। वे कहते हैं- “मैं इस केस की एक भी हीयरिंग नहीं हार सकता। अगर हारा तो बाबा को बेल मिल जाएगी। फिर बाबा कभी हाथ नहीं आएगा।” सोलंकी का ऐसा कहना देश की न्याय व्यवस्था पर गहरी चोट है।

       तीसरी सुनवाई (जोधपुर हाई कोर्ट) में देश के मशहूर वकील रामचंदवानी से सोलंकी की बहस होती है। चंदवानी FIR पर सवाल उठाते हुए केस को घटना क्षेत्र से बाहर का कहते हैं और पूरी जाँच-प्रक्रिया को अंडर प्रेसर बताते हैं। उनका यह भी तर्क है कि पीड़िता का चिकित्सा परीक्षण FIR से पहले नहीं हो सकता। बाबा को आस्था का प्रतीक बताते हुए उसकी छवि को धूमिल करने का षड्यंत्र बताते हैं। वे चिल्लाते हुए कहते हैं- “आस्था के प्रतीक पर कैसे कोई चंद पैसे और अपना पर्सनल एजेंडा पूरा करने के लिए इस हद तक गिर सकता है? दिल्ली पुलिस से निकला हुआ यह झूठ एक महामारी की तरह कैसे फैल सकता है?” वे इस जाँच-प्रक्रिया को CBI को सौंप देने की माँग करते हैं। सोलंकी इस पूरे मामले को POCSO के अधीन बताते हैं और चंदवानी को जवाब देते हुए कहते हैं- POCSO कानून का Sec-27 हमको इस बात की इजाजत देता है कि पीड़िता का मेडिकल परीक्षण FIR से पहले कराया जा सकता है, बशर्ते कि वहाँ महिला पुलिसकर्मी की उपस्थिती हो और किसी रिश्तेदार की मौजूदगी हो।” सोलंकी के लिए ‘Who is right’ से ज्यादा ‘What is right’ महत्वपूर्ण है। नाबालिग को बालिग ठहराए जाने की कोशिशों को नाकाम करते हुए सोलंकी कहते हैं- “पीड़िता को बालिग ठहराने की कोशिश की जा रही है और एविडेंस के नाम पर सन्नाटा है। हवाहवाई और चीखमचिल्ली छोड़के कुछ सॉलिड एविडेंस है तो कोर्ट के समक्ष रखें, मैं आर्गुमेंट करने को तैयार हूँ। Rearrest of the rare case है जनाब! इसमें बेल तो कतई नहीं मिलनी चाहिए।” जिस आवाज में और बॉडी लैड्ग्वेज के साथ सोलंकी यह बात कहते हैं, कोर्ट में सन्नाटा छा जाता है। चंदवानी को लज्जित होना पड़ता है। इसी सुनवाई के बाद बाबा द्वारा सोलंकी को बीस करोड़ में खरीदने की कोशिश की जाती है पर वे नाकाम होते हैं।

       चौथी सुनवाई में गवाहों की पेशी होती है। पहली बार पीड़िता के पिता को कटघरे में बुलाया जाता है जहाँ वे वकील के गलत सवाल पर भड़क उठते हैं। पीड़िता को तोड़ने की कोशिश की जाती है। उसके 10वीं और 11वीं के प्रसेंटेज पर सवाल उठाया जाता है। पीड़िता डटकर सभी सवालों का जवाब देती है। सोलंकी उसे पहले ही समझा चुके थे- “सवालों का स्तर बहुत गिरा हुआ भी हो सकता है। तुम्हें तोड़ने की बहुत कोशिश होगी। घबराना नहीं बच्चा!” सवालों का स्तर कितना गिरा हुआ हो सकता है, यह जानने के लिए दामिनीफिल्म के कोर्ट ट्रायल को याद किया जा सकता है। पीड़िता से पहली बार बयान लेते समय भी उन्होंने कहा था- अदालत में पता नहीं क्या-क्या पूछते हैं!” इसके बाद दामिनी की याद स्वाभाविक है। इस सुनवाई के बाद सोलंकी को पता चलता है कि बाबा के बेटे द्वारा किए गए भूमि अधिग्रहण, रेप आदि जैसे जघन्य अपराधों की वकालत चंदवानी ने ही की है। इसके बाद केस से जुड़े गवाहों की हत्या शुरू हो जाती है। सोलंकी का भी पीछा किया जाता है।

       गवाह महेश भवचंदानी की हत्या के डर से पाँचवी सुनवाई में गवाही देने से सरस्वती शिशु मंदिर के प्रिंसिपल मधुकर त्रिपाठी मना कर देते हैं। कोर्ट में बाकी गवाहों से पूछताछ होती है। सोलंकी दयानंद सागर स्कूल की प्रिंसिपल बापट को झूठ साबित कर देते हैं। सुनवाई के बाद कोर्ट से बाहर निकलते समय बाबा के गुंडों द्वारा एक और गवाह की हत्या कर दी जाती है। लगातार गवाहों की हत्या देखकर पीड़िता और उसके माता-पिता को चिंता होती है। सोलंकी पीड़िता को समझाते हैं- “तुम्हारा दुश्मन है डर, घबराहट, आंतरिक उत्पीड़न। पर ये लड़ाई तुम्हें खुद ही लड़नी पड़ेगी। अब तो डालो दुपट्टा कमर में और निकाल लो तलवार। अब तो शंखनाद हो चुका है गुड़िया!” इस दृश्य में सोलंकी का आत्मविश्वास देखने लायक है।

       छठी सुनवाई में पीड़िता से केवल परिजन और वकीलों के सामने पूछताछ होती है और बाबा के वकील द्वारा घटना के 6 दिन बाद FIR करने पर आपत्ति व्यक्त की जाती है। अपोजीशन के सवालों का जवाब देते और पीड़िता द्वारा बताए गए सभी बातों को सही ठहराते हुए सोलंकी कहते हैं- “सुप्रीम कोर्ट कई बार यह जजमेंट दे चुका है कि पीड़िता का बयान रेप केस में एकमात्र पुख्ता सबूत है, अगर वह कोर्ट को यह कंविन्स करने में कायमयब हो जाती है कि वह जो बोल रही है सही बोल रही है।” इस सुनवाई के बाद फिर एक गवाह बीरपाल की गोली मारकर हत्या कर दी जाती है। सोलंकी की सुरक्षा में एक पुलिसकर्मी को उनके साथ लगा दिया जाता है।

       सातवीं पेशी में देश के एक और नामचीन वकील श्री वेंकटेश्वर स्वामी का आगमन होता है। वे जज को क्षेत्रीयता के नाम पर कंविन्स करने का प्रयास करते हैं, बाबा के कामों का बखान करते हैं। तभी सोलंकी उन्हें बीच में टोकते हुए कहते हैं कि काम करने से किसी को रेप करने की छूट नहीं मिल जाती। सोलंकी स्वामी को भी केस में हरा देते हैं। कोर्ट से घर लौटते समय रेड लाइट पर सोलंकी को अपनी हत्या का भ्रम होता है।

       आठवीं पेशी (सुप्रीम कोर्ट) में अपोजीशन द्वारा बाबा को Trigeminal Neuralgia बीमारी बताकर जाँच के लिए अमेरिका भेजने की माँग की जाती है। सोलंकी को लगता है कि बाबा भागने की योजना बना रहे हैं। उन्हें पता है कि कानून का हाथ इतना लंबा नहीं है कि वह अमेरिका तक पहुँच जाए। अगर ऐसा होता तो जितने भी अपराधी या लुटेरे देश छोड़कर विदेश भागे हैं, सबको गिरफ्तार कर लिया गया होता। सोलंकी बिना किसी लागलपेट के स्पष्ट शब्दों में कहते हैं- “बाबा भागने की प्लानिंग कर रहा है और आजकल हमारे देश में क्रिमिनल के भागने का जो माहौल चल रहा है, उसके आधार पर मैं आपसे अनुरोध करता हूँ कि बाबा को अमेरिका न भेजा जाए।” सोलंकी देश के गौरव AIIMS में ही बाबा का इलाज कराने की माँग करते हैं। ऐसा ही होता है। बाबा निरोगी पाए जाते हैं और उनके बेल का यह अंतिम खेल भी फेल हो जाता है। सुनवाई के बाद सोलंकी बेटे की गलती के कारण परेशान होकर घर लौटते हैं और कमरा बंद करके बेटे को पीटते हैं। वे परेशान हैं। छत की मुंडेर पर गहरी चिंता में बैठे हैं। तभी माँ आकर उन्हें समझती हैं। माँ-बेटे मिलकर रामधारी सिंह दिनकर की प्रसिद्ध रचना रश्मीरथी(1951) कुछ पंक्तियाँ गुनगुनाते हैं-

सच है, विपत्ति जब आती है,

कायर को ही दहलाती है,

शूरमा नहीं विचलित होते,

क्षण एक नहीं धीरज खोते,

विघ्नों को गले लगाते हैं,

काँटों में राह बनाते हैं।

मुख से न कभी उफ़ कहते हैं,

संकट का चरण न गहते हैं,

जो आ पड़ता सब सहते हैं,

उद्योग-निरत नित रहते हैं

शूलों का मूल नासाने को,

बढ़ खुद विपत्ति पर छाने को।

       पाँच साल बाद 2018 को आखिरी सुनवाई होती है। बाबा के वकील एक ऐसे जजमेंट की माँग करते हैं जिससे महान गुरु और सनातन धर्म पर लांछन न लगे। सभी प्रकार के सबूतों से हार चुके केस में अपोजीशन सनातन धर्म के नाम पर बाबा के साथ न्याय की माँग करता है। इस पर सोलंकी कुकर्म के तीन प्रकारों का वर्णन करते हुए शिवजी और पार्वती के माध्यम से जो धर्म की कथा सुनाते हैं, उसको बार-बार देखने-सुनने का मन करता है। सोलंकी पहली बार बड़े साहस के साथ बाबा को रावण कहते हैं। वे आवेश में कहते हैं- “ये रावण है रावण! इसे कतई नहीं छोड़ा जाना चाहिए। इसने गुरुभक्ति के साथ विश्वासघात किया है। मासूम बच्चों के साथ विश्वासघात किया है। इसने मेरे और हम सबके महादेव के साथ विश्वासघात किया है। उनका नाम इस्तेमाल करके एक जघन्य अपराध किया है। I claim a death penalty, to be hanged till death!” बाबा को सजा सुनाई जाती है। वे विटनेस बॉक्स में ही रो पड़ते हैं। उन्हें रोता हुआ देखकर एक बार पुनः गोस्वामी तुलसीदास की याद आती है। उन्होंने लिखा है- “जस करनी तस भोग विधाता। नरक जात पुनि क्यों पछताता।” बाबा ने भी जैसा किया वैसा ही पाया।

       सिर्फ एक बंदा काफी है फिल्म को मिशन की तरह प्रचारित किया जाना चाहिए। जागरूकता अभियान के रूप में टैक्स फ्री करके सिनेमाघरों में दिखाई जानी चाहिए। गाँव-गाँव में टीवी या प्रोजेक्टर के माध्यम से इसके शो चलाने चाहिए। यह आम फिल्मों की तरह मसाला फिल्म नहीं है जिसका चलन इन दिनों जोरों पर है। यह POCSO से संबंधित जानकारियों का संग्रह है। POCSO कानून पर आधारित इससे बेहतर फिल्म बॉलीवुड में अभी तक नहीं बनी है। इसे जन-जन तक पहुंचाया जाना चाहिए। 2012 में निर्भया कांड के बाद इस कानून को लागू किया गया था। उसी घटना के बाद वर्मा कमिटी की रिपोर्ट भी आई थी। 2012 के बाद महिला संबंधी क़ानूनों में बड़े बदलाव हुए। उसी की एक बानगी प्रस्तुत करती है यह फिल्म।

       अभिनय की बात करें तो मनोज वाजपेयी अपने अभिनय के चरमोत्कर्ष पर हैं। उनकी हर उपस्थिति ने उस दृश्य को दोबारा देखने के लिए मजबूर किया। एक बार उनको सुनने के लिए और दूसरी बार सिर्फ उन्हें देखने के लिए। उनके हर संवाद को एक बार में लिख पाना मुश्किल रहा। जो सुना, उन संवादों का जिक्र ऊपर किया जा चुका है पर जो देखा उसका वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता। उसे सिर्फ देखा और महसूस किया जा सकता है। उसे देखकर अचंभित हुआ जा सकता है। धीरे-धीरे, बड़े प्यार से बात करते हुए कैसे अभिनय के शीर्ष पर पहुँचा जा सकता है, यह देखने के लिए मनोज वाजपेयी के अभिनय को देखा जाना चाहिए। पीसी सोलंकी के रूप में वे बहुत साधारण लगते हैं। सामान्य मनुष्य की तरह वे भी धार्मिक हैं और शिवजी के परम भक्त हैं। अपने पहले ही दृश्य में वे शिवलिंग की पूजा करते हुए नजर आते हैं और मनोविकारों को राक्षस बताते हैं जिसके संहारक हैं शिवजी। कोर्ट में नामी वकील के साथ सेल्फी लेना चाहते हैं और जब नई कमीज पहनकर कोर्ट में जाते हैं तो उसका टैग निकालना भूल जाते हैं। Trigeminal Neuralgia ठीक से नहीं बोल पाते। लेकिन जैसे-जैसे उन्हें जीत मिलती जाती है, उनका आत्मविश्वास बढ़ता जाता है और अंत में बहुत ही साधारण-सा दिखने वाला व्यक्ति असाधारण बनकर उभरता है। सत्य ही उनकी ताकत है और संविधान उनका कवच। संविधान हाथ में लिए बाबा साहब भीमराव अंबेडकर की प्रतिमा दिखाना इस बात की ओर संकेत है। वे बड़ी निडरता से अधर्म के खिलाफ धर्म की और असत्य के खिलाफ सत्य की लड़ाई लड़ते हैं और अंत में विजयी होते हैं।

       पीड़िता (नु सिंह) के किरदार में अदिति सिंह अंद्रिजा अच्छी लगी है। जहाँ वह मौन है, वहाँ और भी अधिक मार्मिक दिखती है। अपने हाव-भाव और शारीरिक भाषा से जितना वह कह जाती है, उतना प्रभाव उसके संवादों से भी उत्पन्न नहीं होता। वैसे भी उसके हिस्से कम संवाद हैं। पर जो हैं उसमें निडरता है, साहस है। यह निडरता देश की सभी लड़कियों में होनी चाहिए।  

       विपिन शर्मा बाबा के वकील के रूप में अच्छे लगे हैं। शर्मा और सोलंकी के बीच अच्छा संबंध है। दोनों के बीच का संवाद मैत्रीपूर्ण है। दोनों में कहीं आपसी खींच-तान या मनमुटाव नहीं है। लेकिन उनकी मित्रता न्याय की लड़ाई में कहीं बाधा नहीं डालती। सोलंकी न्याय के लिए लड़ते हुए प्रेमचंद की कहानी पंच परमेश्वर के नायक अलगू चौधरी की तरह लगते हैं जो अपने मित्र जुम्मन शेख के खिलाफ बूढ़ी औरत के हक में फैसला सुनाते हैं। हार के बाद जुम्मन अलगू से नफरत नहीं करते हैं बल्कि अपनी गलतियों को स्वीकार करते हैं। शर्मा और सोलंकी उसी अलगू और जुम्मन की तरह लगते हैं।

       बाबा के रूप में सूर्य मोहन कुलश्रेष्ठ प्रभावी लगते हैं। अपनी आवाज, बात कहने का सलीका और चाल-ढ़ाल में वे बिलकुल तथाकथित बापू जैसे ही हैं। स्वयं को उन्होंने उस कैरेक्टर में ढाल लिया है। परंतु बोलने का उन्हें भी उतना ही मौका मिला है जितना नु को मिला है। तीन ही दृश्य हैं जिसमें बाबा कुछ कहते हैं। पहले दृश्य में वे सत्संग का ज्ञान देते हैं, दूसरे दृश्य में वे सिर्फ नॉट गिल्टी। मैं निर्दोष हूँकहते हैं। भक्तों को सच्ची भक्ति का पाठ पढ़ाते हुए उन्हें तीसरी बार सुना गया। इसके बावजूद नु और बाबा के चरित्रों की सार्थकता उनकी मौन अभिव्यंजना में अधिक दिखाई पड़ती है।

       अपूर्व सिंह कार्की का डायरेक्शन अच्छा है। बहुत सीमित संसाधनों में उन्होंने अच्छी फिल्म बनाई है। इतने कोर्ट ट्रायल के बाद भी एक भी ऐसा दृश्य नहीं है, जिसमें बात दोहराने का खतरा हो। बल्कि यह देखने की उत्सुकता बनी रहती है कि अगले ट्रायल में क्या होगा? प्रत्येक ट्रायल अपने पहले ट्रायल से भिन्न, नया और मजबूत है।

       प्रोड्यूसर विनोद भानुशाली की भी तारीफ की जानी चाहिए। उन्होंने धारा के विपरीत नाव चलाने का साहस किया है। जिस दौर में कोई भी बात धर्म के विपरीत न हो रही हो, वैसे समय में इस तरह की फिल्म बनाना साहस का ही काम है।  

 

                                                                                                          

 

 

                                                                                                                       रमेश ठाकुर 

                                                                                                                        8448971626

    8810399646  

 

(नोट: इस फिल्म में ऐसा कहीं नहीं कहा गया है कि यह आशारम बापू के ऊपर बनाई गई है। परंतु जिस पीसी सोलंकी को वकील के रूप में प्रस्तुत किया गया है, उससे यह अनुमान लगाया जा रहा है कि यह फिल्म उन्हीं के ऊपर बनाई गई है। क्योंकि बापू को जेल भेजने वाले वकील का नाम पीसी सोलंकी ही है। मैंने इसकी समीक्षा साहित्य से जोड़कर इसलिए की है क्योंकि इसमें साहित्य का अच्छा इस्तेमाल किया गया है। विशेष रूप से गोस्वामी तुलसीदास और रामधारी सिंह दिनकर का।) 

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